एक सामयिक रचना कवि की देखें व आनन्द लें.... घूप देखाय धरा न कतौअबु बादर बूँदी हियाँ दिखलैहै।। भोरू औ साँझु परे कुहिरा चौपाया गतीनु बखानि न जैहैं।। पूस दिना सखि टूस कहैं रजनी सजनी कतनी बढि़ जैहैं।। काजु सबै कै जुगाढ़ चलैमतिया सखि चंचल काव गनैहै।।1।। सेंवारि फुलानि सखी सरसोंहरियाली धरा कै बखानि न जैहैं।। गफ्फानि देखाय खडी़ अरहर मानौ राह ऊ रोंकि के जाइऊ न देइहैं।। बथुआ औ चना खोंटहारि खडी़ कस लाइ घरा वै साग रचैहैं।। तोरि के गन्ना पेराइ के केर्रा मेहमानौ चंचल लाय पियैहैं।।2।। आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी, चंचल।। 228001।। मोबाइल...8382821606,8853521398,9125519009।।
*गुलाब* देकर गुल- ए -गुलाब आलि अलि छल कर गया, करके रसपान गुलाबी पंखुरियों का, धड़कनें चुरा गया। पूछता है जमाना आलि नजरों को क्यों छुपा लिया कैसे कहूँ , कि अलि पलकों में बसकर, आँखों का करार चुरा ले गया। होती चाँद रातें नींद बेशुमार थी, रखकर ख्वाब नशीला, आँखों में निगाहों का नशा ले गया, आलि अली नींदों को करवटों की सजा दे गया। देकर गुल-ए-गुलाब...... डा. नीलम
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