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डा.नीलम

पाती बेटी की

माँ सुनो ना 
तुम भी सोचोगी
इतने अर्से बाद
क्यों मैंने
पाती लिख कर
अपने मन की पीड़ा
लिख दी
समझ नहीं पाई थी
जब मेरी विदाई पर
तुम एकांत में जा
मेरी छुटी हुई चीजों से
लिपट लिपट रोईं थीं
आज विदा मेरी भी
बेटी हुई
घर खाली-खाली हो गया
दीवारों की खाली खूंटियां
रसोई के खड़कते बर्तन
पोर्च का खाली झूला
खिले महकते फूल
और वो दरवाजे से बाहर
निकलता मुस्कराता
अदृश्य चेहरा
लाख छूने की कोशिश में
हाथों का रीता रह जाना
अब समझी 
क्यों तू बिलख कर रोई थी
क्या टूटा था तेरे भीतर
रो तो नहीं पाई
मगर तेरे भीतर की कसक
आज भावविह्वल हो
लिखने की कोशिश की है
विरही बदली बरसाए बिना
बूंद बूंद आखर में
समेटने की कोशिश की है
कि बरसो तक ये 
भीगे अक्षर की पाती
हर माँ की पीड़ा की
थाती रहे।

        डा.नीलम

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