संसार -- समर
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संसार समर है लड़ना है
क्यों ठहरा, आगे बढ़ना है।
यहां सपन सभी अंगूरी हैं
पथ की पहचान जरूरी है
इच्छाएं आध - अधूरी हैं
मन ढूंढ़े मृग कस्तूरी है
मिलना और बिछड़ना है
क्यों ठहरा, आगे बढ़ना है।
मत दूर भाग तू बंधन से
क्यों हार मानता जीवन से
विचलित है मन क्रंदन से
कुछ मांग यशोदा नंदन से
दुनिया मे व्यर्थ झगड़ना है
क्यों ठहरा, आगे बढ़ना है ।
आई विपदा मे टूट गया
निज हाथों से सब छूट गया
यह घट मिट्टी का फूट गया
ईक पल मे सब कुछ लूट गया
अब क्या जीना क्या मरना है
क्यों ठहरा, आगे बढ़ना है।
विजय कल्याणी तिवारी
बिलासपुर छ.ग.
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