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विजय कल्याणी तिवारी

पाषाण जीवन
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आँसुओं से रिक्त है जो मन
सच कहूं पाषाण वह जीवन।

भीगता ही है नही आँचल
तोड़ जाता है मगर बंधन ।

सोच निर्मम है जमाने की
सींचता कोई नही उपवन ।

ज्ञान गंगा में डुबो आए
आदमी को चाहिए तो धन।

सुलह की बातें करे तो कौन
अब भरा अंतस बड़ा अनबन।

लोग उसके साथ ही चलते
जेब जिसकी हो मधुर खनखन ।

मोह मदिरा का बढ़ा भारी
आक्रांत एकाकी से है आँगन ।

रंग उतरे फूल - पांतों के
नयन भर रोने लगे मधुबन ।

शेष तेरा आसरा अब कुछ करो
इस जगत को त्राण दो भगवन ।

विजय कल्याणी तिवारी
बिलासपुर छ.ग.

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