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विजय कल्याणी तिवारी

मैं मन का मारा बेचारा
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नही कभी जीता नित हारा
इस मन का मारा बेचारा ।

कहाँ चोट लग जाए कैसै
सोच समझकर पग धर यारा।

वह लाचार बड़ा दिखता है
चल उसको दे जरा सहारा ।

सरल नही है त्याग तपस्या
जो बन जाओ तुम ध्रुव तारा।

कूदा नही नदी के जल मे
व्यर्थ भयाकुल क्यों जलधारा।

इस तन लहू चूसना जारी
सत सेवा का गढ़ कर नारा ।

गहन शीत तरूवर के नीचे
भोर प्रतीक्षित वह बेचारा ।

उस जल से उम्मीद बहुत थी
निकला सारा जल ही खारा ।

हुई गलतियां डरना सीखो
राख करे सब कुछ अंगारा ।

विजय कल्याणी तिवारी
बिलासपुर छ.ग.

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