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सीमा मिश्रा बिन्दकी

दोहे 

तापमान भू का बढ़ा,व्याकुल है हर प्राण।
वसुधा फिर भी कर रही,जीवन का संत्राण।। 

नेत्र तीसरा खोलकर, क्रोधित है दिनमान।
मानव ने निशदिन किया,वसुधा काअपमान।। 

समय पूर्व फसलें पके, गरम सुबह औ शाम।
चैत मास में है दिखे , जेठ मास का घाम।। 

समयधारअविरल बहे ,रोक न पाए कोय।
इसमें बाँधा बाँध तो , ध्वंस सदा ही होय।। 

प्रतिक्षण मानव पढ़ रहा,कटुता का है पाठ।
हरियर विष का बीज है , सूखा नेहिल ठाठ। 

स्रोत  नीर  के  सूखते, जीव जगत बेहाल।
धरती  बँजर  हो रही, सिमट  रहे हैं  ताल।। 

धरम करम से हट रहा, मूढ़ मनुज का ध्यान।
अन्धकार की राह का, पथिक बना है ज्ञान।। 

सीमा  अपनी  लांघ  के, चूम  रहा  आकाश।
द्रोह  द्वेष  से  तोड़ता एक दूजे का विश्वास।।


सीमा मिश्रा, बिन्दकी, फतेहपुर
स्वरचित और सर्वाधिकार सुरक्षित

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