इंसान नहीं बन पाया!
झूठ का बाज़ार खूब सजाया आदमी,
लोभ की दरिया में नहाया आदमी।
नष्ट कर डाला अपने सद्गुणों को वो,
देखो,एटमबम से हाथ मिलाया आदमी।
मरने पर जमींन नसीब होगी या नहीं,
सूरज –चाँद को आँख दिखाया आदमी।
मंगल- चाँद पर मानव बसायेगा बस्तियां,
दौलत के पहाड़ से घर सजाया आदमी।
तमाम उम्र वो लड़ता है एक दूसरे से,
कभी इंसान नहीं बन पाया आदमी।
गांव को अब देखो बना रहा शहर,
उसकी भी सादगी मिटाया आदमी।
शुद्ध सांस लेना देखो हुआ है मुश्किल ,
पर्यावरण में आग सुलगाया आदमी।
जल, जंगल, जमींन, पर्वत सभी हैं खफ़ा,
अपने आप को वो मुर्दा बनाया आदमी।
बहुत ही कीमती है देख मानव - तन,
माया की दुनिया में खुद भुलाया आदमी।
छुपती है कहाँ दाग, छुपाने से कभी,
खुद को आज खुदा बनाया आदमी।
रामकेश एम.यादव (कवि,साहत्यिकार)मुंबई,
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