,,,,,,,,,,जहाँ शीशे के घर ,,,,,,,,,,,,,,
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ज़मीं पे सितारे,उगाने चले हो ।
हमें ख्वाब झूठे,दिखाने चले हो।।
इधर खेत सूखे ,रूठा है सावन ।
नदी काग़जों पर, बहाने चले हो।।
हरे हैं अभी भी, यहाँ ज़ख्म जिनके।
ठोकर उन्हें क्यूँ, लगाने चले हो ।।
लड़ा तीरगी से, यहाँ उम्र भर जो ।
उसी दीप को तुम, बुझाने चले हो ।।
हकीकत छुपा फिर मुखौटे लगाकर।
सच आईने से ,छिपाने चले हो ।।
बड़ी दूर मंज़िल ,कठिन रास्ते हैं ।
ये कहकर हमें, तुम डराने चले हो ।।
फ़ना हो गया जो, तेरी आरज़ू में ।
उसे ज़िन्दगी से ,भुलाने चले हो ।।
वहाँ पत्थरों की हुकूमत है पगले ।
जहाँ शीशे के घर, बनाने चले हो ।।
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शिवशंकर तिवारी ।
छत्तीसगढ़ ।
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