ग़ज़ल
ज़िंदगी बनके मुझे प्यार सिखाने आई।
छोड़कर सबको मेरा साथ निभाने आई।।
इतने दुख-दर्द सहे तूने सृजन की ख़ातिर।
ख़ुद सिमट कर मेरा विस्तार बढ़ाने आई।
अपने पंखों की उड़ानों को मुझे सौंप दिया।
आसमानों की मुझे सैर कराने आई।।
मेरी हमदम तू मेरी नशीन बनकर के।
मुझको हैवान से इंसान बनाने आई।।
तू न होती तो फ़िज़ाओं में न रंगत होती।
तू ही मरुथल को गुलिस्तां सा सजाने आई।।
ख़ुद तो शीशे सी कई बार है टूटी बिखरी।
फिर भी पत्थर को तू भगवान बनाने आई।।
मेरी हम-नफ़्स मेरी जाने तमन्ना है जो।
'नित्य' वो मुझमें सिमट करके समाने आई।।
नित्यानन्द वाजपेयी 'उपमन्यु'
मुक्तक
ज़िंदगी बनके मुझे प्यार सिखाने आई।
छोड़कर सबको मेरा साथ निभाने आई।।
इतने दुख-दर्द सहे तूने सृजन की ख़ातिर।
खुद सिमटकर मेरा विस्तार बढ़ाने आई।।
नित्यानन्द वाजपेयी 'उपमन्यु'
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