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मार्कण्डेय त्रिपाठी

जीवन दर्शन

जिंदगी के बरस बीस कब उड़ गए,
कुछ पता ना चला,हम किधर जुड़ गए ।
नौकरी छोड़ी, पकड़ी और आगे बढ़े ,
बैंक में शून्य पर शून्य जुड़ते गए ।।

फिर हुई शादी,सपनें सुनहरे जगे,
मौज मस्ती हुई, वे भी दिन चल गए ।
बाल बच्चे हुए, ध्यान उन पर लगा,
बंद मस्ती हुई,बोझ सिर लद गए ।।

पत्नी गृह कार्य में व्यस्त रहने लगी,
शून्य पर शून्य मैं भी बढ़ाने लगा ।
गाड़ी, बंगले की किश्तें भी सिर पर चढ़ीं ,
धीरे, धीरे मैं उनको चुकाने लगा ।।

उम्र चालीस की होने लगी भ्रात तब,
पास बैठो मेरे,बात हम कुछ करें ।
पत्नी बोली कि फुर्सत नहीं काम से ,
पल्लू खोंसे चली वह, निरर्थक धरे ।।

साठ की उम्र होने को थी जब सखे,
पुत्र विदेश में था,बड़े खुश थे हम ।
एक दिन फोन आया कि शादी किया,
क्या कहें दर्द अपना,मिटा था भरम ।।

बेटा बोला कि बैंकों के शून्यों को अब,
दान दे देना,अब मैं नहीं आऊंगा ।
सुनकर बेहोशी मुझको सताने लगी ,
अश्रु बहने लगे, अब कहां जाऊंगा ।।

पत्नी आई और बैठी मेरे पास तब,
बोली , क्यों थे बुलाए,सुनाओ अभी ।
थोड़ी फुर्सत में हूं, क्या सुनाना तुम्हें ,
कुछ न बोला मैं, लुढ़का था मुखड़ा तभी ।।

देह ठंडा पड़ा था,समझ वह गई,
ले अगरबत्ती, मुझको निरखती रही ।
मेरे हाथों को निज हाथ में लेकर वह,
बोली, चलना कहां है, सिसकती रही ।।

जिंदगी है यही, और क्या मैं कहूं,
सारे सपनें स्वयं ही बिखर जाते हैं ।
अश्रु आएं तो उनको न तुम रोकना,
सोच इसको,बड़े भी सिहर जाते हैं ।।

बैंक का शून्य कुछ काम आता नहीं,
अंत में शून्य, शून्य में समा जाएगा ।
शून्य ही सृष्टि का सार्वभौम सत्य है,
यह समझ ही सदा काम में आएगा ।।

मार्कण्डेय त्रिपाठी

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