धीरज का फल
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सहज हुआ रे मौसम,
अब वह शीत नहीं है,
अब न ही ठिठुरन है,
गैरों की रीत नहीं है।
फलाश के फूलों के,
दिखे नजारे सारे हैं,
पल्लवित पुष्पित हो,
ये सजे किनारे हैं।
मंगल गान हो रहे,
जाग्रत प्राण हो रहे,
नव रूप पाया सबने,
कल्याण सबके हो रहे।
यह नव वर्ष नव आशा,
निश्चित जगायेगी जानों,
नव संदेश से नव बगिया,
निश्चित खिलायेगी मानों।
तब तो मैं कहता हूँ,
धीरज का फल था मीठा,
कहाँ ठिठुरती थी वो बेला,
कहाँ अब कुछ भी न झमेला।
अब दासता की कहीं
दिखती नहीं छबि है,
अब न ही ठिठुरन वह,
गैरों की रीत नहीं है।
------ संतोष श्रीवास्तव "सम"
----------कांकेर, छत्तीसगढ़
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