स्वर्णमुखी
जो करता है नंगा नर्तन।
मधु भावों से प्यार नहीं है।
मौलिक शिष्टाचार नहीं है।
उसे न भाता प्रभु का कीर्तन।
केवल दोष दिखाई देता।
छिद्रान्वेषण करता रहता।
कभी न गुण की पूजा करता।
श्याम रंग को कहता श्वेता।
ललित कला से प्रीति नहीं है।
मधुर भावना मार गयी है।
शुभ्र कामना हार गयी है।
शिव दर्शन की नीति नहीं है।
देख न पाता जो उन्नति है।
सरेआम उसकी अवनति है।।
रचनाकार: डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801
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