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मार्कण्डेय त्रिपाठी

एक पिता की इच्छा

मैं बूढ़ा हो गया हूं अब ,
मुझे तुम छोड़ मत जाना ।
व्यथित, बेचैन उर रहता ,
कभी मुझको न ठुकराना ।।

न कहना आ रही दुर्गंध ,
गंदा हो गया हूं अब ।
गीला बिस्तर मैं कर देता,
नियति का खेल है यह सब ।।

चलाया है तुम्हें उंगली पकड़कर,
भूल मत जाना ।
नहीं अब शक्ति पांवों में ,
उपेक्षित कर न मुस्काना ।।

कटोरी और चम्मच गिर पड़े,
तो ध्यान मत देना ।
यह काया हो गई जर्जर ,
मेरा बकबक भी सुन लेना ।।

न रखना अलग कमरे में ,
भला कैसे पुकारूंगा ।
दवा, पानी ज़रूरी है ,
कैसे खुद को संभालूंगा  ।।

मुझे मत डांटना, मुझसे
कोई ग़लती भी हो जाए ।
कभी बहरा न तुम कहना ,
समझ में कुछ न यदि आए ।।

अकेलापन मुझे खलता ,
कभी तुम पास भी आना ।
करूं यदि याद बुढ़िया को ,
तो हिम्मत देकर सहलाना ।।

जब अंतिम वक्त हो मेरा ,
तो लेना हाथ मुट्ठी में ।
मैं निर्भय होकर जाऊंगा ,
रखो तुम याद घुट्टी में ।।

मैं ईश्वर से कहूंगा ,
नित तेरा कल्याण हो बेटा ।
अमंगल पास ना आए ,
कहूं क्या और सुन बेटा ।।

पिता की चाह यह अंतिम ,
कभी ना मुझको बिसराना ।
मेरा आशीष है तुमको ,
गीला,शिकवा बिसर जाना ।।

मार्कण्डेय त्रिपाठी

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