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मार्कण्डेय त्रिपाठी

जैसी अर्जी,वैसी मर्जी

जैसी अर्जी तुम दोगे प्रभू को सखे,
वैसी ही मर्ज़ी प्रभु की सदा पाओगे ।
दृष्टि जैसी होगी, वृष्टि वैसी होगी,
निज समर्पण से ही प्रभु को तुम भाओगे ।।

शिष्ट मन से सदा, राम का नाम लो,
होगे विशिष्ट प्रभु की नजर में सदा ।
बन अशिष्ट, आचरण मत करो तुम कभी ,
क्लिष्ट कुछ भी नहीं, प्रभु को है सब पता ।
स्वच्छ मन से किया ना प्रभु जाप तो ,
लौटकर इस भंवर में तुम फिर आओगे ।।
जैसी अर्जी तुम दोगे प्रभू को सखे

मन, वचन , कर्म में हो समर्पण सदा ,
तुम दिखावा न करना, कभी जान लो ।
कुछ नहीं चाहिए, मात्र शुचि भाव हो,
भूखे हैं भाव के प्रभु, कहा मान लो ।
संग संतों का कर,पाठ ग्रंथों का कर ,
इस संसार सागर से तर जाओगे ।।
जैसी अर्जी तुम दोगे प्रभू को सखे

चाहे जिस रूप में तुम प्रभू को भजो ,
एक ही ब्रह्म के, वे विविध नाम हैं ।
मेरे सरकार सचमुच दयालू बहुत ,
कृष्ण वे ही हैं सच और वे ही राम हैं ।
भक्ति सरिता में तुम भी नहा लो सखे,
उर से प्रभु के तरानें भी तुम गाओगे ।।
जैसी अर्जी तुम दोगे प्रभू को सखे

मार्कण्डेय त्रिपाठी ।

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