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मार्कण्डेय त्रिपाठी

नारी जीवन

मांग में सिन्दूर पड़ते ही ,
वह लड़की से औरत बन जाती ।
दीदी से आंटी बनती वह ,
निज पीड़ा भी कह ना पाती ।।

दो बच्चों के बाद भी उसका ,
पति अब भी भैया कहलाता ।
घर के बाहर का आकर्षण ,
यह जग धोखेबाज बताता ।।

ध्यान रखती सबकी पसंद का,
उसकी इच्छा का न मूल्य है ।
उसके पति का बाह्याकर्षण ,
क्षमा योग्य, वह देवतुल्य है ।।

सबसे पहले उठ जाती वह ,
चौका, बर्तन और रसोई ।
धन्य, धन्य है प्यारी बेटी ,
जिसकी चिंता करे न कोई ।।

बिना इजाजत के वह अपने,
मायके भी ना जा पाती है ।
कामचोर कहलाती है वह ,
मन मसोस कर रह जाती है ।।

अपने पति से और पिता से,
कुछ पैसे भी नहीं मांगती ।
अगर जरूरत पड़े तभी भी ,
समझौता कर,बात टालती ।।

देकर मां दृष्टांत स्वयं का ,
उसकी हिम्मत सदा बढ़ाती ।
वक्त सभी कुछ ठीक करेगा,
कहकर मां उसको समझाती ।।

थककर आने पर भी घर में,
कोई नहीं पूछता पानी ।
याद आती तब सखी सहेली,
हर औरत की यही कहानी ।।

आंखों के नीचे कालापन, क्यों है,
वह, यह नहीं बताती ।
भला आप समझेंगे कैसे ,
उसकी मां तक समझ न पाती ।।

चेहरा शांत, हंसी फूलों सी ,
कहते मौन तूफ़ान कहानी ।
सात जनम भी कम पड़ जाएं,
इसे समझने में,हे जानी ।।

मार्कण्डेय त्रिपाठी

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