// माँ -- 3 //
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मेरे मन के आँगना पड़े आज तव पाँव
फिर कैसे डूबे कहो बीच भँवर में नाव।।
चाहे पार उतार दे कर दे मुक्ति प्रदान
तू जिस जीवन में रहे वहां शून्य व्यवधान।।
मैं मूरख अज्ञान में फंसा रहा दिन रैन
दरस आस की है लिए आकुल मेरे नैन।।
निज मन की यह मूढ़ता भटकाए नित पाथ
ठोकर खा आहत हुआ पकड़ मात अब हाथ।।
तनिक तेरे स्पर्श से बदला जीवन मूल
प्रात शुभ्र किरणें लिए खिले अनेको फूल।।
विजय कल्याणी तिवारी, बिलासपुर छ.ग.
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