,,,,,,,,,,,,,,,पुरनम निगाहों को,,,,,,,,,,,,,,,
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
तपिश का दौर जारी है, रखो पुरनम निगाहों को ।
ज़िगर में बेकरारी है, रखो पुरनम निगाहों को ।।
उधर फूलों की चाहत, मखमली नाजुक बदन लेकिन।
इधर काँटों की झाड़ी है, रखो पुरनम निगाहों को ।।
घुली मिसरी लबों पे,गूँजती पायल कहीं छम छम ।
कहीं चुभती कटारी है ,रखो पुरनम निगाहों को
सफर दुश्वार हो चाहे, पड़े हों पाँव में छाले ।
चलने की लचारी है, रखो पुरनम निगाहों को ।।
बरसते आग के गोले ,धधकते मज़हबी शोले ।
ज़मीं दिल की कछारी है ,रखो पुरनम निगाहों को ।।
दिखाकर नित नये करतब, वो जादू कर गया सब पर ।
बड़ा शातिर मदारी है, रखो पुरनम निगाहों को ।।
नशे में इश्क के कल जाम छलके, इस कदर यारों ।
अभी भी कुछ खुमारी है, रखो पुरनम निगाहों को ।।
परिंदों को न जाने दो, पड़ोसी के मुँडेरों पर ।
कूचों में शिकारी हैं, रखो पुरनम निगाहों को ।।
.............................................
शिवशंकर तिवारी ।
छत्तीसगढ़ ।
...............................................
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें