न मैं हिंदू हूं और न हीं हूं मुसलमान,
मैं कहुं खुद को एक हिन्दुस्तानी महान।
सभ्यता पनपी जहां सबसे पहले,
पनपी संस्कृति सनातन की महान।
समाहित किया जिसने हर परंपरा को,
कुछ ऐसा है, मेरा भारत महान।
न भेद जहां अपने और पराए का,
धरती है हिन्द की इतनी महान।
भाषा अनेक और रीत भी अनेक,
यह है घर सब का, नहीं यह मकान।
रंगभेद सब मिट जाते जहां,
ऐसा है, यहां का हर इंसान।
भेद में भी एका मिलता जहां,
देखा है कहीं, क्या ऐसा जहान?
गूंजता यहां स्वर मानवता का,
हो गुरुवाणी, पूजा, या फिर अजान।
ढूंढ लो चाहे जग भर में,
नहीं मिलेगा, दूजा हिंदुस्तान।
अजय आवारा
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें