" काटों की सेज "
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बड़ भागी तन यह मिला रख मन इसे सहेज
जो भूला हरि नाम को जग कांटों की सेज ।
सुख दुख बिकते हर जगह ले ले इस संसार
सुख नगदी बिकता यहाँ पर दुख बिके उधार।
इस उधार के फेर ने बदला मन को मीत
कटुता कलह पनप रहा घटा हृदय से प्रीत।
अपनों से मुख मोड़ कर निज सुख रहा तलाश
भूल रहा संसार मे सबका अटल प्रवास ।
इस तन का रख मान तू यह ईश्वर की भेंट
मूढ़ समझने है लगा जीवन को आखेट ।
सुख निज हेत वरण करे बांटे दुख दिन रात
जाने कौन कुचक्र मे फंसा हुआ है तात् ।
अंतिम गति संसार मे सबकी एक समान
सबसे पहले भूलता यही बात इंसान।
इसी भूल के दण्ड से करे नरक मे वास
मूरख चुनता है सदा निज का कठिन प्रवास।
विजय कल्याणी तिवारी, बिलासपुर छ.ग.
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