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मार्कण्डेय त्रिपाठी

भिखारिन

लोकल ट्रेन के डिब्बे में वह ,
अक्सर हमको दिख जाती है ।
उम्र नहीं ज्यादा है उसकी ,
मौन बहुत कुछ लिख जाती है ।।

नंगे पांव घूमती रहती ,
गोदी में बच्चा लटकाए ।
कुछ पैसों को बजा बजाकर,
सदा मांगती मुंह लटकाए ।।

यह बच्चा क्या इसका ही है,
या यह भी है एक तरीका ।
ऐसे प्रश्न उठते मन में ,
फिर भी किया न इस पर टीका ।।

गमछे में से नन्हा बच्चा ,
टुकुर, टुकुर सब देख रहा था ।
कभी सरक जाता था उससे ,
क्रूर नियति का लेख सहा था ।।

क्या सचमुच ये दीन बहुत हैं,
या सब कुछ इनका है नाटक ।
सबकी अपनी सोच अलग है ,
बंद करो चिंतन का फाटक ।।

क्या लेना, देना है तुमको ,
जाओ, तुमको जहां है जाना ।
इनके चक्कर में मत पड़ना ,
बड़ा भ्रमित,इनका अफसाना ।।

द्वंद्व छिड़ गया मन के भीतर,
वह पीड़ा कैसे बतलाऊं ।
क्या यह भारत का भविष्य है,
इसको कैसे चलन सिखाऊं ।।

एक नए भारत का सपना ,
देख रही है जनता सारी ।
जिसमें सबको मिलेगी रोटी ,
नहीं रहेगा कोई भिखारी ।।

पंक्ति के अंतिम व्यक्ति तक सच में,
पहुंचेगी जीवन की सुविधा ।
संकल्पित जन मानस हो तो,
मिट जाती है सारी दुविधा ।।

दिल में जितना करुण भाव है,
पाकेट में उतने ना पैसे ।
मध्यमवर्ग की यह पीड़ा है,
मदद चाहकर, करें वे कैसे ।।

बजट कहीं गड़बड़ा न जाए ,
रहती सदा इसी की चिंता ।
कुछ फुटकर पैसे टटोलकर,
मैंने भी दी,रख मन जिंदा ।।

मार्कण्डेय त्रिपाठी ।

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