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ब्रजेन्द्र मिश्रा ज्ञासु

ग़ज़ल 
212   212  212 212  2

जानकर  भी  अरे  हम  छले  आ रहे  हैं
मुहब्बत  में  तिरी  हम  जले  आ रहे  हैं

हम  सदा   ही  तुम्हें   चाहते  यूँ    रहेंगे
आपको  ही   लगाने   गले  आ   रहे  हैं

बेवफ़ा  या वफ़ा का नहीं है गिला कुछ
जिंदगी  हो   जताने   चले  आ   रहे  हैं

है अजब  ये कहानी  हमारी सनम जी
लोग बेकार  ही  हाथ  मले  आ रहे  हैं

वो  अरे  दो  दिनों  की  मुलाकात  थी 
क्यूँ  अधूरे  सपन  यूँ  पले  आ  रहे हैं

यार अपना समझ के बताया जिसे सब
छाति  पे  मूँग  वे  ही  दले  आ  रहे  हैं

पाल  झूठा  गुमाँ  जो  बड़े  मगरूर थे
ऊँठ  वे  अब  पहाडों  तले  आ  रहे हैं

आज कैसा  जमाना अरे  आ  गया है
आम्र तरु  पे निबोली फले  आ रहे  हैं

ज्ञासु विषधर हुये  थे बुरे  वक्त में जो
सम्हलना वे अभी बन भले आ रहे हैं

© ब्रजेन्द्र मिश्रा 'ज्ञासु' 
📱 07349284609
🏠 सिवनी, मध्यप्रदेश
🏠 बैंगलोर, कर्नाटक

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