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चंचल हरेंद्र वशिष्ट

  शीर्षक:'स्त्री और घर'

मैं रहती घर में अपने और मेरे भीतर घर  पलता है।
जहाँ भी जाती  बनकर साया संग मेरे ही चलता है।

नन्हें बालक सा ज़िद कर संग जाने को सदा मचलता है।
छोड़ के जाती पीछे अक्सर पर मुझसे आगे मिलता है 

मैं भी दूर कहाँ रह पाती, चिंता हर पल मुझे सताती
क्या होगा कैसे होगा मेरे बिन,सोच सोचकर रह जाती
जाने कैसे परिवार का दिन वो एक निकलता है।

यदि कभी न पके रसोई, थोड़ा सा ग़म खा लें तो
बना सकें न चाय अगर खुद घूंट सब्र का पी लें तो
यदि इतना सहयोग करें सब,जीवन में सहज सरलता है।

यूं तो लगता काम ही क्या है पर जब न कोई काम करें
मन चाहे जब काम छोड़कर थोड़ा सा विश्राम करें 
तब  एक उसीके बिना क्यूं न घर भर का काम संभलता है। 

सच पूछो तो हुई सशक्त वो लेकर दोहरी ज़िम्मेदारी
कहो कहाँ कमतर है किसी तरह से भी नर से नारी?
मिलजुलकर ही हर रिश्ते में संबंध प्रीत का पलता है।

स्वरचित मौलिक एवं अप्रकाशित रचना: चंचल हरेंद्र वशिष्ट, हिंदी प्राध्यापिका थियेटर प्रशिक्षिका कवयित्री एवं सामाजिक कार्यकर्ता,आर के पुरम,नई दिल्ली भारत

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