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रामकेश एम. यादव

क्यों हवा ढूँढ रहे हो !

मैं हूँ एक सूरज क्यों अंधेरा ढूँढ रहे हो,
मैं हूँ तेरा समंदर क्यों कतरा ढूँढ रहे हो।

घर बनाने में उसने नपा दी पूरी उमर,
घर जलाने का बताओ क्यों पता ढूँढ रहे हो।

उतार तो लिया पहली ही नजर में दिल के अंदर,
तो बताओ क्यों नींद की दवा ढूँढ रहे हो।

महंगाई छीन ली सारा जहां का सुकून,
आटा हुआ है गीला,क्यों तवा ढूँढ रहे हो।

काटा है तूने जंगल कुछ पैसों के चक्कर में,
उखड़ रही हैं साँसें क्यों हवा ढूँढ रहे हो।

मेरे दिल में वो रहती है उसे जलाऊँ कैसे,
कब्र में लटका है पैर, तू अदा ढूँढ रहे हो।

हिसाब नहीं कर पाओगे आज के रहनुमा का,
चमचमाती धूप में क्या सजा ढूँढ रहे हो।

बहा नदियों खून तब जाकर मिली आजादी,
जो लूट रहे हैं देश,उनका पता ढूँढ रहे हो।

तोतली उम्र निकल गई तो समझो मजा गया,
अब इस ढलती उम्र में क्या नखरा ढूँढ रहे हो।

लूटपाट,हत्या,डकैती और कितना किया खून,
आया जाने का वक़्त तो खुदा ढूँढ रहे हो।


रामकेश एम. यादव
(रायल्टी प्राप्त कवि व लेखक), मुंबई

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