छंदमुक्त कविता
शीर्षक --- **कवि*
जब एक कवि की उद्भावना
कल्पित कुंज में विचरण
करती हुई, जा पहुंचती है
यथार्थ के धरातल तक ,
जहां अस्तित्व हीन है
असंभव शब्द ,
जो खिला देता है सुरभित गुलशन
निदाघ मरू में भी।
जब अस्तित्व का परिहास कर
अनस्तित्व करता है तामसी अट्टहास,
तब अरुणोदय का उद्घोष करती,
वह आलोक किरण प्रविष्ट होती है
कवि के भावसिंधु में ,
छट जाता है नितांत तम
कवि के अंतर्द्वंद्व का।
फिर झरती है स्वर्णिम शब्द लहरी ,
उस अंकनी कंठ से।
जब क्रुद्ध प्रकृति के विकल थपेड़े,
देते हैं कातरता से भरी
घनीभूत पीड़ा,
तब उड़ेल देती है
सफेद कागज पर,
वह अंकनी उर में भरी
तमाम मर्म वेदना को।
जब करता है कालचक्र
मनुज जीवन पर शासन
और मृत्यु करती है ,
विजय प्राप्ति का उद्घोष
तब कवि का कल्पित संसार,
सहसा हो उठता है कल्पनातीत।
स्वरचित कविता
**मंजु तंवर**
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