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डॉक्टर रामबली मिश्र

फिज़ा

अदा फिज़ा बिखेरती सुरम्य दृश्य भावना।
सदा विरंग रंगदार शानदार कामना।।

मजा सभी सप्रेम लूटते हुए सहर्ष हैं।
समग्र भूधरा हरी सभी जगह अकर्ष हैं।।

मनोविनोद हो रहा समस्त मन प्रसन्न हैं।
फिज़ा सुगंध मारती महक रहे सुअन्न हैं।।

पवित्र ध्यान मग्नता सुनिष्ठ स्नेह साधना।
गृहे गृहे मचल रही अनंत बार आंगना।।

मनोहरी छटा फिज़ा सदेह है बिखेरती।
अनंग नृत्य कर रहा रती स्वयं उकेरती।।

थिरक थिरक अचल सचल सतत मयूर नाचते।
अदूर दूर के पथिक निकट पहुंच सुवासते।।

अतर तरो सुताजगी कदंब डाल श्याम हैं।
नयन मिलाय गोपियां रचे व्रजेंद्र धाम हैं।।

 न व्यर्थ गांव नाचता न द्वेष भाव जागता।
अधर्म छोड़ बस्तियां सुदूर मूर्ख भागता।।

कमालदार है फिज़ा यहां न कष्ट है कभी।
स्वधर्म प्रेम योग साहचर्य में लगें सभी।।

साहित्यकार डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी।
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*अचेतन मन*

नहीं सचेत मन जहां वहीं अचेत रूप है।
अचेत मन बहुत गहन अनंत सिंधु कूप है।।

सजग जिसे नकारता वही जमा अचेत में।
सकारता जिसे वही भरा हुआ सचेत में।।

अनेक तथ्य से भरा पटा अचेत भाव है।
कभी नहीं पता चले मनुष्य का स्वभाव है।।

त्रयी स्वरूप मन मनुज अचेतना विकार है।
गहर समुद्र सा खड़ा सचेत का शिकार है।।

अचेतना अवांछनीय तथ्य की गुहार है।
अतृप्त भाव वास का यही खुला दुआर है।।

समाज मान्य जो नहीं वही यहां मचल रहा।
परंपरा जिसे नकारती वही यहां टहल रहा।।

 दरिद्रता दरिंदगी छिपे हुए अचेत में।
असावधान मन हुआ दिखे तथा सचेत में।।

अचेतनीय तथ्य भी खिले कभी कभार हैं।
निडर असत्य निंद्य पर मिले सहज सवार हैं।।

विचारवान सत्यनिष्ठ ही सचेत मान है।
अचेत मन कुतथ्य कूप द्रोह क्रोधवान है।।

साहित्यकार डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी।

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