औरत!
घर को घर देखो बनाती है औरत,
रंग - बिरंगे फूल खिलाती है औरत।
न जाने कितने खेले गोंद में देवता,
उम्रभर औरों के लिए जीती है औरत।
लाज- हया धोकर कुछ बैठे हैं देखो,
कभी-कभी कीमत चुकाती है औरत।
जिद पर आए तो जीत लेती है मैदान,
झाँसी की रानी बन जाती है औरत।
नारी को कमजोर तुम कभी न समझो,
मंगल- चाँद तक वो जाती है औरत।
पाकर के मौत फिर से देती है जिन्दगी,
कितनी शक्तिशाली होती है औरत।
चुपचाप कितनी सहती है वो जिल्लत,
जमाने का गम पी जाती है औरत।
वो ताकत है देश की,ताकत है विश्व की,
पीठ पर वो रोटी पकाती है औरत।
औरत न होती तो समझो दुनिया न होती,
मन को सुकूँ भी तो देती है औरत।
बुझा दो रिवाजों की जलती उस अग्नि को,
एक देह भर ही नहीं होती है औरत।
रामकेश एम.यादव,
( रायल्टी प्राप्त कवि व लेखक), मुंबई
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