गीत - मन होता है घर जाने को......
(पलायन की पीड़ा पर आधारित गीत है। जो एक श्रमिक के अंतर्मन की व्यथा को व्यक्त करने का प्रयास है।)
धूल भरे इस जीवन पथ पर,
छाले हैं हर पग की रेखा।
शहर दिखा सपनों का सागर,
पर निकली इक सूखी रेखा।
आँखों में जल दिल में उम्मीदें,
थोड़ी सी रोटी है थोड़ा चैन।
वो माँ की गोदी फिर पुकारे,
जो दे दे जीवन को रैन।
वो तुलसी चौरा बुलाता है, दीया फिर से जलाने को।
व्याकुल मन है मत रोको, मन होता है घर जाने को।।
माटी की खुशबू से बढ़कर,
कोई इत्र नहीं लगता है।
शहरों की रौशनी में भी,
गाँवों का चाँद चमकता है।
बचपन की आहटें आज भी,
कानों में गूँज रचाती हैं।
नीम की ठंडी छाँव तले,
स्मृतियाँ झूला - झुलाती हैं।
पिता के हल की मूठ पकड़, फिर खेतों में जाने को।
व्याकुल मन है मत रोको, मन होता है घर जाने को।।
कल फिर लौटूँगा निर्माणों में,
ईंटों से सपन सजाना है।
पर आज चलूँ उस देहरी पर,
जहाँ दिल बसता है सब जाना है।
जो छूट गये हर मोड़ पर,
लेकिन वो रिश्ता भी निभाना है।
घर की देहली चूम तो लूं मैं,
जी लेना है फिर मर जाना है।
तुम सम्भालों सपनों को, मैं चल पड़ा निभाने को।
व्याकुल मन है मत रोको, मन होता है घर जाने को।।
~दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल
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