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मैं श्रृंगार लिखूं कैसे, जब रण में रक्त बहाया जाए-----दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

मैं श्रृंगार लिखूं कैसे, जब रण में रक्त बहाया जाए?
जब मां का आंचल जलता हो व्याकुल शस्त्र उठाया जाए।

गूंज रही हैं क्रंदन-ध्वनियां, शंख नहीं अब तोपें बोलें,
सरहद पर संकल्प लिए, अब वीर न आंसू से डोलें।
मां के आंचल की रक्षा में, वक्षस्थल बन जाए दीवार,
जब राष्ट्र पुकारे वीरों को, तब क्या रुकता है त्यौहार?

गीत नहीं, जय घोष उठेगा हर पापी को मारा जाए।
मैं श्रृंगार लिखूं कैसे, जब रण में रक्त बहाया जाए?

कश्मीर नहीं अब करुणा मांगे, अब मांगे रण की ज्वाला,
हर बर्फीली चोटी बोले मिटा दो कपटी दुश्मन मतवाला!
झीलों का श्वेत वसन अब तो, रक्त-वर्ण में रंगा हुआ है,
स्वर्ग धरा की संतानें अब, अंगारों में जला हुआ है।
अब मूक नहीं सहना होगा, हर आंसू का उत्तर तलवार,
शब्द नहीं अब अग्निवाण हों, हर छंद बने रक्षक-प्रहार।

जहां वीरता मौन खड़ी हो, वहां श्रृंगार अधम बन जाए।
मैं श्रृंगार लिखूं कैसे, जब रण में रक्त बहाया जाए?

हे अर्जुन! गांडीव उठाओ, मत साधो मौन तपस्वी सा,
हे राम! शर-संधान करो, जलाओ लंका धधकती सा।
हे कृष्ण! चक्र घुमा दो फिर, नर्तन हो अंतिम संहार का,
हे शिव! त्रिनेत्र प्रज्वलित कर दो, तांडव हो अत्याचार का।
अब शांति नहीं, ना समाधान, अब रण का धर्म निभाना है
जो मातृभूमि को बांटने चले, उसका मस्तक उड़ाना है।

अब ध्वज नहीं झुकेगा किंचित,जब शत्रु पस्त न हो जाए।
मैं श्रृंगार लिखूं कैसे, जब रण में रक्त बहाया जाए?

उठो जवानों! हमला बोलो! अब ढाल नहीं तलवार बनो,
हर शत्रु को राख बनाओ, अब अंगारों की धार बनो।
रक्त व्यर्थ ना गिरे धरा पर, हर बूंद बने संकल्प नया,
युद्ध शांति की पहली सीढ़ी,अब कर्म यही, व्रत धर्म नया।
हम नहीं झुकेंगे मरते दम तक, रणभूमि गवाही देगी,
भारत मां की जय के स्वर में, विजय की थाल बजेगी।

लिखना श्रृंगार तभी संभव है जब बदला पूरा हो जाए।
मैं श्रृंगार लिखूं कैसे, जब रण में रक्त बहाया जाए?
         #दयानन्द_त्रिपाठी_व्याकुल 
#मुक्तक #ओजपूर्ण #सृजनफिरसे #गीत #कविता #highlight

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