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यार व्याकुल तुम नहीं हो.....! - दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

यार व्याकुल तुम नहीं हो.....!

धूप सी  लगने  लगी अब,
हर घड़ी, हर शाम मुझको।
यार व्याकुल तुम नहीं हो...!

ख़त्म होने को चला है गीत जैसा प्यार मेरा।
सूनी आँखों में बसी है अब धुएँ सी हार मेरा।

छू   नहीं   पाती   हवाएँ,
छू गई थी प्यार मुझको।
यार व्याकुल तुम नहीं हो...!

छूटते जाते हैं पल वो जो मिलकर संवारे।
अब अधूरे से वो सपने जो मेरे थे तुम्हारे।

बोलता हर क्षण व्यथा-सा,
दर्द  का  संवाद  मुझको।
यार व्याकुल तुम नहीं हो...!

अब उजालों में भी जैसे घुल गया है एक साया।
ज़िन्दगी का हर नज़ारा लग रहा है अब पराया।

छिन गई मुस्कान भी अब,
लग रहा उपहास मुझको।
यार व्याकुल तुम नहीं हो...!

बिन तुम्हारे अब समय भी जैसे ठहरा सा लगे है
हर घड़ी की धड़कनों में  सिर्फ सन्नाटा लगे है।

दर्पणों में भी न दिखती,
अब कोई पहचान मुझको।
यार व्याकुल तुम नहीं हो...!

गीत जैसे मौन बैठे, तान सब बिखरी पड़ी है।
भावनाओं की गली में, अब तन्हाई ही खड़ी है।

बाँटने    वाला   नहीं   है, 
अब कोई भी राग मुझको।
यार व्याकुल तुम नहीं हो...!

जब बहारें रूठ बैठीं, फूल भी मुरझा गए हैं।
इन निगाहों  के  उजाले, धुंधले से हो गए हैं।

रंग   सारे   धुल   गए   हैं,
अब न भाए फाग मुझको।
यार व्याकुल तुम नहीं हो...!
     - दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल 

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