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मिली कुंडली ठीक-ठाक है, व्याकुल हृदय उलझा, पुरोहित..... दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

क्या सफल परिणय बनेगा......
(परिणय के भाव-संवाद में पुरुष के अंतर्द्वंद्व को दर्शाती हुई कविता)

मिली कुंडली  ठीक - ठाक है,
व्याकुल मन उलझा, पुरोहित!
क्या  सफल  परिणय  बनेगा?

गुण सभी हैं मेल खाते, शील-संयम रुप सजा है।
शब्द भी  रस  घोलते हैं,  दृष्टि मंडप  सा सजा है।
कहें पिता अब और न सोचो, श्रेष्ठ सभी संयोग मिला है!
मां कहती हैं अब गृहस्थी के जीवन का पहिया मिला है।

मुहूर्त, लग्न, सब पूर्ण निर्णय,
ज्योतिषी    संतुष्ट    भी    हैं,
अब  न  कोई  संशय  बनेगा?

ध्यान में वह है मेरे पर मन में संशय हो जाता है।
शून्य-सी उसकी है चुप्पी, विचलित मन हो जाता है।
नहीं पता है मुझे अभी तक उसके धड़कन की भाषा।
क्या मिलन बस है निभाना या मधुरिम कोई आशा?

हंसी ओट में देखूं उसको
प्रश्न  कोई  छपे  नहीं  है?
क्या मौन कभी संवाद बनेगा?

मैं अग्नि समक्ष व्रत को ले लूं, सप्तपदी को पूर्ण करूं,
क्या वह सच में चलेगी, साथ जब मैं मौन रहूँ?
ये वाचा, व्रत-वचन सभी, सामाजिक संकल्प ही हैं?
या हृदय के अंतस्थल में बात छिपे विकल्प ही हैं?

प्रश्न करते   हैं   विवेक से,
क्या  प्रेम  संकल्प  बनेगा?
क्या सफल परिणय बनेगा?

सब समर्पण स्वीकृत हो गाया दायित्व निभाना है?
क्या  मेरी  व्यथाओं  को, बिन पूछे  सब  जाना है?
क्या किसी रूप में मैं भी उसकी चाहत बन पाऊंगा?
या अभिनय में खुद को खोकर मैं आगे बढ़ जाऊंगा?

विवाह अर्थ का यह होगा
स्वत्व को विस्मृत मैं करूँ?
क्या यह समझौता बनेगा?

ग्रह की गणना भले है मिलती,
पर क्या मन की भी हुई है?
वह जो मौन खड़ी है दुल्हन,
क्या मेरे स्वर में बसी हुई है?

कुंडलियों ने कहा  योग्य  है,
पर व्याकुल हृदय पूछता है,
क्या सफल परिणय बनेगा?
       - दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल 

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