ग़ज़ल- समझ रहे हैं चाल तुम्हारी,
वाणी क्यों वाचाल तुम्हारी।
मतलब से बातें है करता,
सोचो क्या है हाल तुम्हारी।
शब्दों का आडम्बर रच कर,
नहीं लगेगी सुर ताल तुम्हारी।
अपना सदा अपना ही रहेगा,
काली है सब दाल तुम्हारी।
लाख सहारा छल का ले लो,
टूट रही सब ज़ाल तुम्हारी।
समय से पहले कुछ ना मिलेगा,
अब ना गलेगी दाल तुम्हारी।
भले बनो तुम ज्ञान सुभीता,
आंखें क्यों है लाल तुम्हारी।
पथ की तुमने मर्यादा खोई,
उल्टी पड़ रही चाल तुम्हारी।
सीसे में चेहरे सब सजती,
तोड़ ही देतीं भ्रमजाल तुम्हारी।
मीठी बातें व्याकुल करती हैं,
गरल घोलती पांडाल तुम्हारी।
सब शामिल हैं षड़यंत्रों में,
बातें हैं इंद्रजाल तुम्हारी।
मांगों दुआ भूल जाएं कैसे?
तेरी बेवफ़ाई जंजाल तुम्हारी।
- दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल
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