गुज़रे कल की बात पुरानी,
सब यादों में आई है।
फिर सावन में बुआ आईं,
ठिठक-ठिठक कर धीरे-धीरे।
कच्चे रस्ते टूटी मेंड़ें,
सोच रहीं हैं नदियां तीरे।
अम्मा की बानी, तुलसी चौरा,
सब यादों में आई है।
संग बापू के जब निकलीं थीं
सब दुआर-परखा छू आईं,
अम्मा की वो ताखे की सुई
कोई और अब छू ना पाई
झील सी सुनी उसकी आंखें
कुछ ना कुछ ढरकाई हैं।
चश्मे के पीछे धुँधला सा
अब सब धुँधला सा लगता है।
नीम का झूला, पीली चूड़ी
सब बस सपना-सा लगता है।
उस ठूँठ तले बैठी - बैठी,
धीमे सुर में गुनुगुनाई हैं।
पीपल बोले आ बैठो बहना,
बरगद ने भी राह जोह ली।
गुड़ की डली, राखी की बातें
फिर से मन में जगह जो ली।
कोई नहीं पूछे फिर भी,
मुस्काकर राखी बाँध आई हैं।
आँगन - आँगन नाम पुकारें,
बचपन के सब चित्र हैं उभरे।
अब हर देहरी देख-देखकर,
सिर चुपचाप झुकाती टहरे।
जाते-जाते मुट्ठी भर चावल,
आशीषों सी बिखराई हैं।
- दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल
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