*मधुरालय*
*सुरभित आसव मधुरालय का*10
छंद-ताल-सुर-लय को साधे,
भाव भरे रुचिकर हिय में।
वाणी का यह प्रबल प्रणेता-
सच्ची यह कविताई है।।
लेखक-साधक-चिंतक जिसने,
दिया स्नेह भरपूर इसे।
उसके गले उतर देवामृत-
ने भी प्रीति निभाई है।।
आसव-शक्ति-प्रदत्त लेखनी,
जब काग़ज़ पर चलती है।
चित्र-रेख अक्षुण्ण खींचती-
रहती जो अमिटाई है।।
आसव है ये अमल-अनोखा,
मन भावुक बहु करता है।
मानव-मन को दे कवित्व यह-
करता जन कुशलाई है।।
योग-क्षेम की धारा बहती,
यदि प्रभुत्व इसका होता।
धन्य लेखनी,कविता धन्या,
जो रस-धार बहाई है।।
मधुरालय के आसव जैसा,
नहीं पेय जग तीनों में।
मधुर स्वाद,विश्वास है इसका-
जो इसकी प्रभुताई है।।
जब-जब अक्षर की देवी पर,
हुआ कुठाराघात प्रबल।
आसव रूपी प्रखर कलम ने-
माता-लाज बचाई है।।
अमिय पेय,यह आसव नेही,
ओज-तेज-बल-बर्धक है।
साहस और विवेक जगाता-
होती नहीं हँसाई है।।
रचना धर्मी कलम साधते,
सैनिक अस्त्र-शस्त्र लेकर।
दाँव-पेंच-मर्मज्ञ सियासी-
विजय सभी ने पाई है।।
शिथिल तरंगों ने गति पाई,
भरी उमंगें चाहत में।
बन प्रहरी की इसने रक्षा-
जब दुनिया अलसाई है।।
मन-मंदिर का यही पुजारी,
रखे स्वच्छ नित मंदिर को।
कलुषित सोच न पलने देता-
सेव्य-भाव बहुताई है।।
आसव नहीं है मदिरा कोई,
आसव सोच अनूठी है।
सोच ही रक्षक,सोच विनाशक-
सोच बिगाड़-बनाई है।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें