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मई, 2025 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मैं भी मौन हो जाऊँ तो फिर आवाजें कौन उठाएँगी..... दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

कौन जलाएगा दीप यहाँ, जब साँझें खुद बुझ जाएँगी। मैं भी मौन हो जाऊँ तो फिर आवाजें कौन उठाएँगी।। सच्चाई के गालों पर, रोज तमाचे लगते हैं। फिर भी न्याय की मूर्ति आँखें बंद किए रहती है।। शब्दों की मंडी में हर सच बिकने को तैयार हुआ, पर बेचने वाले की नीयत, कब निर्दोष रहती है।। मंदिर, मस्जिद की देहरी पर, शोर कौन मचाएगा। मैं भी मौन हो जाऊँ तो फिर आवाजें कौन उठाएँगी।। कुछ चन्द्रमाओं ने स्याही ओढ़ी, चमक ओट हो गई। कुछ सूरज भी थक हार के, अंधेरे से घुलने लगे।। कलम की नोकें कुंद हुईं, शपथों ने दम तोड़ा जब, तब शब्दों के बेजुबाँ शव, ज़मीन में मिलने लगे।। जो जले हुए अक्षर हैं, उनको फिर कौन सजाएगा। मैं भी मौन हो जाऊँ तो फिर आवाजें कौन उठाएँगी।। कितनी सीताएँ जंगल-वन में आज भी निर्वासित हैं। कितनी मीरा आज जहर पीती हैं घर के आँगन में।। कितनी कल्याणियाँ चौखट पर, प्रश्न लिए सो जातीं, और सभ्यता गर्व लिए बैठी सिंहासन पर तन में।। इस चुप पीड़ा की आँखों को, फिर कौन रुलाएगा। मैं भी मौन हो जाऊँ तो फिर आवाजें कौन उठाएँगी।। धरती माँ की छाती चीर के, कोई खनिज लूट लाया। फिर पत्तों से पूछा गया, क्यों हरियाली सोई है।। नदियों...

यार व्याकुल तुम नहीं हो.....! - दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

यार व्याकुल तुम नहीं हो.....! धूप सी  लगने  लगी अब, हर घड़ी, हर शाम मुझको। यार व्याकुल तुम नहीं हो...! ख़त्म होने को चला है गीत जैसा प्यार मेरा। सूनी आँखों में बसी है अब धुएँ सी हार मेरा। छू   नहीं   पाती   हवाएँ, छू गई थी प्यार मुझको। यार व्याकुल तुम नहीं हो...! छूटते जाते हैं पल वो जो मिलकर संवारे। अब अधूरे से वो सपने जो मेरे थे तुम्हारे। बोलता हर क्षण व्यथा-सा, दर्द  का  संवाद  मुझको। यार व्याकुल तुम नहीं हो...! अब उजालों में भी जैसे घुल गया है एक साया। ज़िन्दगी का हर नज़ारा लग रहा है अब पराया। छिन गई मुस्कान भी अब, लग रहा उपहास मुझको। यार व्याकुल तुम नहीं हो...! बिन तुम्हारे अब समय भी जैसे ठहरा सा लगे है हर घड़ी की धड़कनों में  सिर्फ सन्नाटा लगे है। दर्पणों में भी न दिखती, अब कोई पहचान मुझको। यार व्याकुल तुम नहीं हो...! गीत जैसे मौन बैठे, तान सब बिखरी पड़ी है। भावनाओं की गली में, अब तन्हाई ही खड़ी है। बाँटने    वाला   नहीं   है,  अब कोई भी राग मुझको। यार व्याकुल तुम नहीं हो...! जब बहारें र...

मिली कुंडली ठीक-ठाक है, व्याकुल हृदय उलझा, पुरोहित..... दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

क्या सफल परिणय बनेगा...... (परिणय के भाव-संवाद में पुरुष के अंतर्द्वंद्व को दर्शाती हुई कविता) मिली कुंडली  ठीक - ठाक है, व्याकुल मन उलझा, पुरोहित! क्या  सफल  परिणय  बनेगा? गुण सभी हैं मेल खाते, शील-संयम रुप सजा है। शब्द भी  रस  घोलते हैं,  दृष्टि मंडप  सा सजा है। कहें पिता अब और न सोचो, श्रेष्ठ सभी संयोग मिला है! मां कहती हैं अब गृहस्थी के जीवन का पहिया मिला है। मुहूर्त, लग्न, सब पूर्ण निर्णय, ज्योतिषी    संतुष्ट    भी    हैं, अब  न  कोई  संशय  बनेगा? ध्यान में वह है मेरे पर मन में संशय हो जाता है। शून्य-सी उसकी है चुप्पी, विचलित मन हो जाता है। नहीं पता है मुझे अभी तक उसके धड़कन की भाषा। क्या मिलन बस है निभाना या मधुरिम कोई आशा? हंसी ओट में देखूं उसको प्रश्न  कोई  छपे  नहीं  है? क्या मौन कभी संवाद बनेगा? मैं अग्नि समक्ष व्रत को ले लूं, सप्तपदी को पूर्ण करूं, क्या वह सच में चलेगी, साथ जब मैं मौन रहूँ? ये वाचा, व्रत-वचन सभी, सामाजिक संकल्प ही हैं? या हृदय के अंतस्थल में बात छिपे ...

ग़ज़ल- समझ रहे हैं चाल तुम्हारी-------दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

ग़ज़ल- समझ रहे हैं  चाल तुम्हारी,           वाणी क्यों वाचाल तुम्हारी।           मतलब  से  बातें  है  करता,           सोचो क्या है  हाल तुम्हारी।          शब्दों का  आडम्बर  रच कर,          नहीं लगेगी सुर ताल तुम्हारी।           अपना सदा अपना ही रहेगा,           काली है सब  दाल  तुम्हारी।           लाख सहारा  छल का  ले लो,           टूट  रही  सब  ज़ाल  तुम्हारी।           समय से पहले कुछ ना मिलेगा,           अब  ना  गलेगी  दाल  तुम्हारी।            भले  बनो  तुम  ज्ञान  सुभीता,            आंखें  क्यों  है  लाल  तुम्हारी।...

हम हैं खबरों के प्रहरी, कलम हमारी शान...........!!!!

हम हैं खबरों के प्रहरी, कलम हमारी शान। सत्य दिखाना धर्म हमारा, यही हमारा मान। हम हैं खबरों के प्रहरी, सच का जिनके संग निवास, हर लम्हा कलम चलाते, रखते जग में नई मिठास। धूप-छाँव हो या अंधियारा, हम तो रहते हैं तैयार, ना छुट्टी, ना कोई परवाह, पत्रकारिता है हमारो प्यार। हम हैं खबरों के प्रहरी, कलम हमारी शान। सत्य दिखाना धर्म हमारा, यही हमारा मान। जब सोती है सारा बस्ती, हम खोजें सच्ची बात, भीतर की हलचल लाकर दें जन को पूरे दिन की बात। आंधी हो या हो तूफ़ां, हम ना माने हार, क्योंकि कलम का है यह व्रत, और सत्य हमारा सार। हम हैं खबरों के प्रहरी, कलम हमारी शान। सत्य दिखाना धर्म हमारा, यही हमारा मान। उत्सव हो या शोक का पल हो, हम ही सबसे आगे, संकट की घड़ी में भी हम, सच्चाई के राग लगाए। भीड़ में जब सब चुप रहते, हम आवाज़ उठाते हैं, जनहित की खातिर लड़कर, सच को सामने लाते हैं। हम हैं खबरों के प्रहरी, कलम हमारी शान। सत्य दिखाना धर्म हमारा, यही हमारा मान। हर दिन नई चुनौती लेकर, फिर भी मुस्कान लिए, हर शब्द में उजियारा भरते, साहस बनकर जिए। हम ना केवल सूचनादाता, हम जनचेतना की जान, हम हैं सेवा के सिपाही, सच्चे...

मातृ भूमि पर मर - मिट जाएं यही है सच्चा हिंदुस्तान.....!!

प्रथम राष्ट्र संकल्प हमारा जीवन हो त्याग समान, मातृ भूमि पर मर - मिट जाएं यही है सच्चा हिंदुस्तान! शिक्षा यदि लाचार बनाए, त्यागो उसको छोड़ के आओ, राष्ट्र प्रेम जो भर न सके ऐसे व्यर्थ ज्ञान को आग लगाओ। यदि अमृत की चाह रखो तो विष भी पीना सीखो तुम, बलिदानों के जन्मे युग में चलो उसी पथ पर अब तुम। वह शिक्षा व्यर्थ अधूरी है, जो सर्वश्रेष्ठ का ना दे मान। मातृ भूमि पर मर - मिट जाएं यही है सच्चा हिंदुस्तान! क्षमता है जीवन का स्वर दुर्बलता है मृत्यु समान, राष्ट्र रहेगा तभी प्रखर जब त्याग करें सब वीर महान। न डरा काल से ना संकट से बनो शिवा सा विषधर आज, हर शत्रु के प्रहार से पहले दो रण में संकल्प का साज। जो राष्ट्र झुके मिट जाए वह, बस बचे वहीं वीरों का गान। मातृ भूमि पर मर - मिट जाएं यही है सच्चा हिंदुस्तान! अब शांति नहीं रणभेरी होगी शक्ति नीति के  काल का विजय हमारा लक्ष्य बना है प्रजाजनों के भाल का। राष्ट्रप्रेम हो धर्म हमारा कर्तव्य बने गीता का ज्ञान, उठो, चलो उस यज्ञ पथ पर, जहाँ हो केवल बलिदान। मृत्यु से जो डरे नहीं है, उस अमरत्व का रहता मान। मातृ भूमि पर मर - मिट जाएं यही है सच्चा हिंदुस्ता...

मैं श्रृंगार लिखूं कैसे, जब रण में रक्त बहाया जाए-----दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

मैं श्रृंगार लिखूं कैसे, जब रण में रक्त बहाया जाए? जब मां का आंचल जलता हो व्याकुल शस्त्र उठाया जाए। गूंज रही हैं क्रंदन-ध्वनियां, शंख नहीं अब तोपें बोलें, सरहद पर संकल्प लिए, अब वीर न आंसू से डोलें। मां के आंचल की रक्षा में, वक्षस्थल बन जाए दीवार, जब राष्ट्र पुकारे वीरों को, तब क्या रुकता है त्यौहार? गीत नहीं, जय घोष उठेगा हर पापी को मारा जाए। मैं श्रृंगार लिखूं कैसे, जब रण में रक्त बहाया जाए? कश्मीर नहीं अब करुणा मांगे, अब मांगे रण की ज्वाला, हर बर्फीली चोटी बोले मिटा दो कपटी दुश्मन मतवाला! झीलों का श्वेत वसन अब तो, रक्त-वर्ण में रंगा हुआ है, स्वर्ग धरा की संतानें अब, अंगारों में जला हुआ है। अब मूक नहीं सहना होगा, हर आंसू का उत्तर तलवार, शब्द नहीं अब अग्निवाण हों, हर छंद बने रक्षक-प्रहार। जहां वीरता मौन खड़ी हो, वहां श्रृंगार अधम बन जाए। मैं श्रृंगार लिखूं कैसे, जब रण में रक्त बहाया जाए? हे अर्जुन! गांडीव उठाओ, मत साधो मौन तपस्वी सा, हे राम! शर-संधान करो, जलाओ लंका धधकती सा। हे कृष्ण! चक्र घुमा दो फिर, नर्तन हो अंतिम संहार का, हे शिव! त्रिनेत्र प्रज्वलित कर दो, तांडव हो अत्याचार का। अ...