कौन जलाएगा दीप यहाँ, जब साँझें खुद बुझ जाएँगी। मैं भी मौन हो जाऊँ तो फिर आवाजें कौन उठाएँगी।। सच्चाई के गालों पर, रोज तमाचे लगते हैं। फिर भी न्याय की मूर्ति आँखें बंद किए रहती है।। शब्दों की मंडी में हर सच बिकने को तैयार हुआ, पर बेचने वाले की नीयत, कब निर्दोष रहती है।। मंदिर, मस्जिद की देहरी पर, शोर कौन मचाएगा। मैं भी मौन हो जाऊँ तो फिर आवाजें कौन उठाएँगी।। कुछ चन्द्रमाओं ने स्याही ओढ़ी, चमक ओट हो गई। कुछ सूरज भी थक हार के, अंधेरे से घुलने लगे।। कलम की नोकें कुंद हुईं, शपथों ने दम तोड़ा जब, तब शब्दों के बेजुबाँ शव, ज़मीन में मिलने लगे।। जो जले हुए अक्षर हैं, उनको फिर कौन सजाएगा। मैं भी मौन हो जाऊँ तो फिर आवाजें कौन उठाएँगी।। कितनी सीताएँ जंगल-वन में आज भी निर्वासित हैं। कितनी मीरा आज जहर पीती हैं घर के आँगन में।। कितनी कल्याणियाँ चौखट पर, प्रश्न लिए सो जातीं, और सभ्यता गर्व लिए बैठी सिंहासन पर तन में।। इस चुप पीड़ा की आँखों को, फिर कौन रुलाएगा। मैं भी मौन हो जाऊँ तो फिर आवाजें कौन उठाएँगी।। धरती माँ की छाती चीर के, कोई खनिज लूट लाया। फिर पत्तों से पूछा गया, क्यों हरियाली सोई है।। नदियों...