दो दिन के मेहमान मोह पाश को तजकर बंदे, अपने को पहचान । जगत् में दो दिन के मेहमान ।। कहां से आया है, क्यों आया, क्या है जग से नाता । क्यों सब छोड़, तुम्हें जाना है, परम ज्ञान कब आता । कहां अंत में जाना होगा, जब निकलेंगे प्रान ।। जगत् में जो भी नजर तुम्हें आता है, वह सब कुछ है माया । रज्जु सर्प दृष्टांत बताता, नहीं सत्य,यह काया । कहता जो वेदांत जगत् हित, करो ज़रा तुम ध्यान ।। जगत् में कोई, कितना भी प्यारा हो, अंत समय त्यागेगा । साथ न देंगे जग के रिश्ते , कब तक यूं भागेगा । कब, यह बात समझ आएगी, झूठा हर अभिमान ।। जगत् में जन्म कहां,किस कुल में पाया, इसमें वश नहीं तेरा । पर, चरित्र और कर्मों से ही, भव बंधन का फेरा । कभी तो ध्यान लगाकर सुन, वंशीवाले की तान ।। जगत् में जीवन का कुछ नहीं भरोसा, कभी बुलाया आए । समय शेष है, अभी सुधर जा, जीवन व्यर्थ न जाए । साधु,संत की संगति में रह, कर मधुमय रस पान ।। जगत् में मार्कण्डेय त्रिपाठी ।