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मार्च, 2023 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

डा. नीलम

*गुलाब* देकर गुल- ए -गुलाब आलि अलि छल कर गया, करके रसपान गुलाबी पंखुरियों का, धड़कनें चुरा गया। पूछता है जमाना आलि नजरों को क्यों छुपा लिया कैसे कहूँ , कि अलि पलकों में बसकर, आँखों का करार चुरा ले गया। होती चाँद रातें नींद बेशुमार थी, रखकर ख्वाब नशीला, आँखों में निगाहों का नशा ले गया, आलि अली नींदों को करवटों की सजा दे गया। देकर गुल-ए-गुलाब......       डा. नीलम

मार्कण्डेय त्रिपाठी

दो दिन के मेहमान मोह पाश को तजकर बंदे, अपने को पहचान । जगत् में दो दिन के मेहमान ।। कहां से आया है, क्यों आया, क्या है जग से नाता । क्यों सब छोड़, तुम्हें जाना है, परम ज्ञान कब आता । कहां अंत में जाना होगा, जब निकलेंगे प्रान ।। जगत् में जो भी नजर तुम्हें आता है, वह सब कुछ है माया । रज्जु सर्प दृष्टांत बताता, नहीं सत्य,यह काया । कहता जो वेदांत जगत् हित, करो ज़रा तुम ध्यान ।। जगत् में कोई, कितना भी प्यारा हो, अंत समय त्यागेगा । साथ न देंगे जग के रिश्ते , कब तक यूं भागेगा । कब, यह बात समझ आएगी, झूठा हर अभिमान ।। जगत् में जन्म कहां,किस कुल में पाया, इसमें वश नहीं तेरा । पर, चरित्र और कर्मों से ही, भव बंधन का फेरा । कभी तो ध्यान लगाकर सुन, वंशीवाले की तान ।। जगत् में जीवन का कुछ नहीं भरोसा, कभी बुलाया आए । समय शेष है, अभी सुधर जा, जीवन व्यर्थ न जाए । साधु,संत की संगति में रह, कर मधुमय रस पान ।। जगत् में मार्कण्डेय त्रिपाठी ।

डॉ रघुनंदन प्रसाद दीक्षित प्रखर

आलेख               भारतीय काल गणना और नव संवत्सर                  ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~          भारतीय नववर्ष का आरम्भ चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से होता है। हेमाद्रि के ब्रह्म पुराण में मान्यता है कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही सृष्टि का निर्माण  हुआ, अत: इसी दिन  से भारत वर्ष की काल गणना की थी। हिंदू समय चक्र सूर्य सिद्धांत पर आधारित है। नव संवत्सर के इतिहास की चर्चा करें तो 'इसका आरम्भ शकारि महाराज विक्रमादित्य ने किया। भारतीय नववर्ष चैत्रमास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से आरम्भ होता है। हेमाद्रि के ब्रह्म पुराण में इसी तिथि को पृथ्वी की रचना का वर्णन है। अत: यही तिथि काल गणना हेतु उचित मानी गयी। इस नव संवत्सर को भारतीय वर्ष भी कहा जाता है। महाराज विक्रमादित्य द्वारा  आरम्भ क्या गया था तो इन्हीं के नाम पर विक्रम संवत कहा गया। भारतीय काल गणना पंचाग पर आधारित है। इसके पांच अंग तिथि, वार, नक्षत्र, करण और योग होते हैं।     भारतीय काल गणना अनुसार, नव दिवस,  नव तिथि का आरम्भ सूर्योदय काल से माना जाता है।         यथा-     *सूर्योदयप्रमाणेन अह: प्रमाणिको भवेत्।*                   

अरुण दिव्यांश

विषय: वाणी दिनांक: 14 मार्च , 2023 दिवा : मंगलवार वाणी में ही भोर है , वाणी में ही शाम । यश अपयश मिले , वाणी तेरे ही नाम ।। वाणी ही आयाम है , वाणी ही है विराम । मानवता के शोध में , चलता है अविराम ।।  वाणी प्रेम जगावत , वाणी प्रेम भगाता है । वाणी अनल जगाता , वाणी अनल बुझाता है।। वाणी न बाड़ी उपजे , वाणी न हाट बिकाय । वाणी भाव समझ ले , शीश स्वयं लेता नाय ।। पूर्णतः मौलिक एवं अप्रकाशित रचना अरुण दिव्यांश डुमरी अड्डा छपरा ( सारण ) बिहार ।

रमाकांत त्रिपाठी रमन

जय माँ भारती 🙏जय साहित्य के सारथी 👏👏 💐तुम सारथी मेरे बनो 💐 सूर्य ! तेरे आगमन की ,सूचना तो है। हार जाएगा तिमिर ,सम्भावना तो है। रण भूमि सा जीवन हुआ है और घायल मन, चक्र व्यूह किसने रचाया,जानना तो है। सैन्य बल के साथ सारे शत्रु आकर मिल रहे हैं, शौर्य साहस साथ मेरे, जीतना तो है। बैरियों के दूत आकर ,भेद मन का ले रहे हैं, कोई हृदय छूने न पाए, रोकना तो है। हैं चपल घोड़े सजग मेरे मनोरथ के रमन, तुम सारथी मेरे बनो,कामना तो है। रमाकांत त्रिपाठी रमन कानपुर उत्तर प्रदेश मो.9450346879

रामबाबू शर्मा

. शीतलाष्टमी,*बास्योड़ा* की हार्दिक बधाई,मंगलमय शुभकामना...                      *हाइकु*                        ~~                  *शीतलाष्टमी*                         1                   शीतलाष्टमी                 अनुपम त्यौहार                   मंगलकारी ।                         2                  मात भवानी                 मनमोहक रूप                    मनभावन ।                         3                   ठंडा प्रसाद                  अमृत बनकर                 अमूल्य दवा ।                         4                  महिमा तेरी             संस्कृतियों का मेला                  अपरम्पार  ।                        5                   घर-घर में               बनते पकवान               छाछ-राबड़ी  ।                       6                साफ-सफाई               अनुपम संदेश               कल्याणकारी।                      7                 हजारो रंग           खुशियों का वो संग               प्यार लुटाती ।                      8               गीत प्रभाती           मिल के सब गाती             पूजा की था

मंजु तंवर

छंदमुक्त कविता शीर्षक ---      **कवि* जब एक कवि की उद्भावना कल्पित कुंज में विचरण  करती हुई, जा पहुंचती है  यथार्थ के धरातल तक , जहां अस्तित्व हीन है      असंभव  शब्द , जो खिला देता है सुरभित गुलशन           निदाघ मरू में भी।  जब अस्तित्व का परिहास कर अनस्तित्व करता है तामसी  अट्टहास,  तब अरुणोदय का उद्घोष करती,  वह आलोक किरण प्रविष्ट होती है  कवि के भावसिंधु  में ,  छट जाता है नितांत तम  कवि के अंतर्द्वंद्व का।  फिर झरती है स्वर्णिम शब्द लहरी , उस अंकनी कंठ से।  जब क्रुद्ध प्रकृति के विकल थपेड़े,  देते हैं कातरता से भरी  घनीभूत पीड़ा, तब उड़ेल देती है  सफेद कागज पर,  वह अंकनी उर में भरी  तमाम मर्म वेदना को।  जब करता है कालचक्र  मनुज जीवन पर शासन  और  मृत्यु करती है ,  विजय प्राप्ति का उद्घोष  तब कवि का  कल्पित संसार,  सहसा हो उठता है कल्पनातीत।       स्वरचित कविता      **मंजु तंवर**

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

जीवन की सार्थकता  जीवन का उद्यान महकता, कर्म-कुसुम जब खिलता है। सुबह-शाम तक सौरभ-सौरभ, रुचिर मधुर फल मिलता है।। किया वरण जो कर्म-क्षेत्र का, वह कर्मठ योगी सम है। कर्म-साधना का वह साधक, बहु त्यागी,भोगी कम है। कष्ट पराया देख शीघ्र ही, उसका हृदय पिघलता है।।        जीवन का उद्यान महकता,         कर्म-कुसुम जब खिलता है।। कल की चिंता किए बिना वह, वर्तमान में जीता है। अपनी धुन का पक्का योगी, कर्म-सृजित रस पीता है। कष्ट-तिमिर को हरने वह नित, दीपक बनकर जलता है।।        जीवन का उद्यान महकता,         कर्म-कुसुम जब खिलता है।। दायित्वों को सदा निभाता, श्रम-सेवी कहलाता है। हिंसक राहों को वह तजकर, शांति-मार्ग अपनाता है। करे कर्म वह निष्ठा पूर्वक, नहीं किसी को छलता है।।        जीवन का उद्यान महकता,         कर्म-कुसुम जब खिलता है।। कर्मोपासक श्रम-बल-बूते, कठिन कार्य कर लेता है। वह अभाव से ग्रसित जनों को, अर्थ-अन्न भी देता है। उसके मन के हर कोने में, स्वप्न सुनहरा पलता है।।        जीवन का उद्यान महकता,         कर्म-कुसुम जब खिलता है।।                    ©डॉ0हरि नाथ मिश्र                        9919446372

डॉक्टर रामबली मिश्र

फिज़ा अदा फिज़ा बिखेरती सुरम्य दृश्य भावना। सदा विरंग रंगदार शानदार कामना।। मजा सभी सप्रेम लूटते हुए सहर्ष हैं। समग्र भूधरा हरी सभी जगह अकर्ष हैं।। मनोविनोद हो रहा समस्त मन प्रसन्न हैं। फिज़ा सुगंध मारती महक रहे सुअन्न हैं।। पवित्र ध्यान मग्नता सुनिष्ठ स्नेह साधना। गृहे गृहे मचल रही अनंत बार आंगना।। मनोहरी छटा फिज़ा सदेह है बिखेरती। अनंग नृत्य कर रहा रती स्वयं उकेरती।। थिरक थिरक अचल सचल सतत मयूर नाचते। अदूर दूर के पथिक निकट पहुंच सुवासते।। अतर तरो सुताजगी कदंब डाल श्याम हैं। नयन मिलाय गोपियां रचे व्रजेंद्र धाम हैं।।  न व्यर्थ गांव नाचता न द्वेष भाव जागता। अधर्म छोड़ बस्तियां सुदूर मूर्ख भागता।। कमालदार है फिज़ा यहां न कष्ट है कभी। स्वधर्म प्रेम योग साहचर्य में लगें सभी।। साहित्यकार डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी। ______________________________________ *अचेतन मन* नहीं सचेत मन जहां वहीं अचेत रूप है। अचेत मन बहुत गहन अनंत सिंधु कूप है।। सजग जिसे नकारता वही जमा अचेत में। सकारता जिसे वही भरा हुआ सचेत में।। अनेक तथ्य से भरा पटा अचेत भाव है। कभी नहीं पता चले मनुष्य का स्वभाव है।। त्रयी स्वरूप मन

अमरनाथ सोनी अमर

दोहा-एकता| संविधान की एकता, समझ न पाए लोग| है अनेकता देश में,कुछ जन मन का रोग|| भाईचारा एकता, में होता सब  कर्म|  मंदिर-मठ पर घात हो, चुप हो सत्ता धर्म|| यही एकता देश में, किया कुठाराघात| जिला मुजफ्फर गोधरा,जैसे बहुतों बात|| केशर देखो एकता,उससे कुछ लो सीख|  गृह जन धन को त्याग कर, घूमे मागे भीख|| देखो कितनी एकता, निकले हिंद जुलूस| पत्थर वर्षा हो रही, देख रहे मनहूस|| भारतीय की एकता, मजहब नहीं विशेष| गोली बम बारूद से,शहर बचा कुछ शेष||  देख एकता लाडली,लेकर गए अनूठ|  इज्जत बेइज्जत किए, काटे लेकर मूठ|| देख धार्मिक एकता, मंदिर-मठ कर युक्त| गैर धर्म अनुदान दे,किए उसे है मुक्त|| देख एकता देश की, दो कानूनन लूट| इक तो शासन फाँस में, दूजे खुली है छूट|| सरकारों की एकता, देखो शान उतान| वृद्धि रोक जन वर्ग पर, कड़ी नीति प्रतिमान|| अमरनाथ सोनी अमर,

विजय मेहंदी

ll *मातृ-भाषा हिन्दी* ll हिन्दी  हमारी  भाषा  है, हिन्दी  ही अभिलाषा है। हिन्दी हमारी  शक्ति  है, हिन्दी ही अभिव्यक्ति है।। हिन्दी  हमारी  बोली  है, हिन्दी  ही  हमजोली  है। हिन्दी  हमारी  जननी है, हिन्दी  ही  कुलकर्णी  है।। हिन्दी   भाषा  पावन  है, हिन्दी  ही  मनभावन  है। हिन्दी  हमारी संस्कृति है, हिन्दी  ही  सुसंस्कृति  है।। हिन्दी  हमारा  संस्कार है, हिन्दी  ही  सुपुरस्कार  है। हिन्दी हमारा अभिमान है, हिन्दी  ही  स्वाभिमान  है।। हिन्दी हमारी आन बान है , हिन्दी    ही    सम्मान   है। हिन्दी   हमारी   जान   है , हिन्दी   देश  की  शान  है।। हिन्दी का  हम  रखें  मान, ऐसा हो  सब का अरमान। हिन्दी   से   है  हिन्दुस्तान, अपनी भाषा अपनी शान।। मौलिक रचना- विजय मेहंदी (कविहृदय शिक्षक) उत्कृष्ठ कम्पोजिट विद्यालय शुदनीपुर, मडियाहूं,जौनपुर(उo प्रo) 9198852298

राकेश मिश्र

*राधे - राधे ॥ आज का भगवद् चिन्तन ॥*                                          *" सूत्र सुखमय जीवन का "*  🕉️           केवल मानव जन्म मिल जाना ही पर्याप्त नहीं है अपितु हमें जीवन जीने की कला आनी भी आवश्यक है। पशु- पक्षी तो बिल्कुल भी संग्रह नहीं करते फिर भी भी उन्हें इस प्रकृति द्वारा जीवनोपयोगी सब कुछ प्राप्त हो जाता है।  🕉️              आनन्द साधन से नहीं साधना से प्राप्त होता है। आंनद भीतर का विषय है, तृप्ति आत्मा का विषय है। मन को कितना भी मिल जाए , यह अपूर्णता का बार - बार अनुभव कराता रहेगा। जो अपने भीतर तृप्त हो गया उसे बाहर के अभाव कभी परेशान नहीं करते।  🕉️             जीवन तो बड़ा आनंदमय है लेकिन हम अपनी इच्छाओं के कारण, अपनी वासनाओं के कारण इसे कष्टप्रद और क्लेशमय बनाते हैं। केवल संग्रह के लिए जीने की प्रवृत्ति ही जीवन को कष्टमय बनाती है। जिसे इच्छाओं को छोड़कर आवश्यकताओं में जीना आ गया, समझो उसे सुखमय जीवन का सूत्र भी समझ आ गया।  🇮🇳🌹 🙏🏻 *🕉️ जय श्री राम*🙏🏻🌹🇮🇳 राकेश मिश्र

विजय मेहंदी

" होली के रंग भाईचारे के संग " होली  आयी - होली   आयी, ले अबीर  की  झोली  आयी। आज  न   कोई   राजा  रानी, आज न कोई  पंडित अज्ञानी। आज   न   कोई   शत्रु - मित्र, आज न  कोई  सौम्य  गुमानी। मिलजुल कर सब खेले होली, है  आपस मे  सब  भाई-भाई। होली   आयी    होली   आयी, ले  अबीर  की  झोली  आयी। आज   न    कोई    धनी   रंक, आज  न  कोई  भिक्षुक  दानी। आज  न   कोई  अग्रज  अनुज, आज  न   कोई   चोर - इमानी। आज  न  कोई  अपना  पराया, आज  न  कोई  गैर  खानदानी। आज न कोई जाति  विजातीय, आज न कोई मजहब की बानी। हिन्दू  मुस्लिम   सिक्ख  इसाई, आपस   मे   सब   भाई - भाई। होली   आयी     होली    आयी, ले  अबीर   की   झोली   आयी। आज   न    कोई    ऊच   नीच, आज न कोई  बड़प्पन  नादानी। आज   न   कोई   पक्ष - विपक्ष, आज न कोई राजनीतिक बानी। आज   न   कोई   छूत - अछूत, आज न कोई पाखण्डी विज्ञानी। जन - जन   में   मदमस्ती छाई, तन  - मन   में   है   रंग  समाई। होली   आयी     होली    आयी, ले  अबीर   की    झोली  आयी। कलमकार-विजय मेहंदी ( कवि शिक्षक ) जौनपुर (उoप्रदेश)

नूतन लाल साहू

मोर सोनहा गांव गंवागे जंगल झाड़ी बाग बगीचा जलरंग पानी नदिया नरवा भइयाँ मोर कहां लुकागे जी चारों खुट छाए हे कुलुप अंधियार मोर सोनहा गांव ह गंवागे मय खोजव कइसे जी, मय खोजव कहां ले जी। आवत हे अवइया ह जावत हे जवइया ह बाचे हे कहवइया ह साखी हे डोकरा अउ अकास ह सिरिफ सुरता ह बाचे हे संगी चारों खुट छाए हे कुलुप अंधियार मोर सोनहा गांव ह गंवागे मय खोजव कइसे जी, मय खोजव कहां ले जी। पैलगी जोहार सबों बतियाय आज भुलागे मोर धकले जीवारा होवत हे आगे मोला तिजरा बुखार अलिन गलिन म खोजत रहिथव बइहा कस संगवारी चारों खुट छाए हे कुलुप अंधियार मोर सोनहा गांव गंवागे मय खोजव कइसे जी, मय खोजव कहां ले जी। एक सुनता म हम मन रहन जइसे बहिनी भाई माटी के मकान रहय नींद आवय रात म बड़ भारी चारों खुट छाए हे कुलुप अंधियार मोर सोनहा गांव ह गंवागे मय खोजव कइसे जी, मय खोजव कहां ले जी। नूतन लाल साहू

चंचल हरेंद्र वशिष्ट

  शीर्षक:'स्त्री और घर' मैं रहती घर में अपने और मेरे भीतर घर  पलता है। जहाँ भी जाती  बनकर साया संग मेरे ही चलता है। नन्हें बालक सा ज़िद कर संग जाने को सदा मचलता है। छोड़ के जाती पीछे अक्सर पर मुझसे आगे मिलता है  मैं भी दूर कहाँ रह पाती, चिंता हर पल मुझे सताती क्या होगा कैसे होगा मेरे बिन,सोच सोचकर रह जाती जाने कैसे परिवार का दिन वो एक निकलता है। यदि कभी न पके रसोई, थोड़ा सा ग़म खा लें तो बना सकें न चाय अगर खुद घूंट सब्र का पी लें तो यदि इतना सहयोग करें सब,जीवन में सहज सरलता है। यूं तो लगता काम ही क्या है पर जब न कोई काम करें मन चाहे जब काम छोड़कर थोड़ा सा विश्राम करें  तब  एक उसीके बिना क्यूं न घर भर का काम संभलता है।  सच पूछो तो हुई सशक्त वो लेकर दोहरी ज़िम्मेदारी कहो कहाँ कमतर है किसी तरह से भी नर से नारी? मिलजुलकर ही हर रिश्ते में संबंध प्रीत का पलता है। स्वरचित मौलिक एवं अप्रकाशित रचना: चंचल हरेंद्र वशिष्ट, हिंदी प्राध्यापिका थियेटर प्रशिक्षिका कवयित्री एवं सामाजिक कार्यकर्ता,आर के पुरम,नई दिल्ली भारत

मंजु तॅंवर

माॅं शारदे को नमन 🙏💐 🙏 *जीवन भोर*🙏 मंगल मंजुल नवल किरन से रश्मि सुवर्णा  उतर गगन से।  ज्योतिर्मय  संसार  बना  कर तम सिंधु सा वितान हटाकर।  मधु  सजल  निर्झर  नवगीतों  से नित नव पल्लव प्रसून खिलाकर।  जग रवि उदित आलौक जगाया अब बीती विभावरी भोर है छाया।   कुछ  मुख  मन  से  प्रफुल्लित हैं  कुछ पर विषाद भाव  की छाया।   यदि उत्तम प्राणी भाव भंगिमा है  मुखरित प्रकृति ने अंक लगाया।   मिले  सुकून की नींद उन्हें फिर  निज मानुष मन मुर्ख समझाया।    निष्ठा , नम्रता   भूल  गया यदि   निज पथ पर है शूल  बिछाया।   गर कपट-कलुष से वृत्ति मुक्त है अंतस  सुरभित  मकरंद समाया।  उर प्रज्वलित अखंडित दीपशिखा फिर"मंजु"अनंत आनंद को पाया।  ✒️✒️✒️✒️✒️✒️✒️✒️  स्वरचित उक्ति   *मंजु तॅंवर*🙏

डॉ. हरि नाथ मिश्र

हिंदुस्तान यह मुल्क़ हिंदुस्तान है ये मुल्क़ हमारा, हमने इसे पल-पल है पसीने से सवाँरा। गांधी-जवाहर-बोस की आँखों का है तारा, हमने इसे पल-पल है पसीने से सवाँरा।।           इस मुल्क़ में कोयल सुनाये गीत सुहानी,           बहती हवा सदा बताए इसकी कहानी।           सारे जहाँ का यही रहा सदियों सहारा,           हमने इसे पल-पल है पसीने से सवाँरा। if।                          यह मुल्क़.... इसकी बसंती बास में है प्यार की खुशबू, ऋतुएँ तमाम करतीं फिरें सबसे गुफ़्तगू। गुलशन में खिले फूल लगें जैसे सितारा- हमने इसे पल-पल है पसीने से सवाँरा।।                          यह मुल्क़.... इस मुल्क़ में बहती सदा गोदावरी-गंगा,। मेहनतकशों के रंग में यह देश है रँगा। खेतों में हिंदुस्तान के जीवन की है धारा, हमने इसे पल-पल है पसीने से सवाँरा।।                          यह मुल्क़.... आपस में नहीं जंग यहाँ नहीं दुश्मनी, हिन्दू-मुसलमाँ-सिख-इसाई में है बनी। चारो-तरफ़ इंसानियत का मस्त नज़ारा, हमने इसे पल-पल है पसीने से सवाँरा।।                           यह मुल्क़.... इसके लिए हम खून-पसीना बहाएँगे , मर जाएँगे,मिट जाएँगे, ना सिर झुकाएँग

विजय मेहंदी

21 मार्च " विश्व कविता दिवस " पर कविता पर ही सम्मानित साहित्यकार  साथियों के सम्मान में प्रस्तुत मेरी यह  मौलिक  कविता : " कवि और कविता " -------        ✍️ " कवि और कविता " 📖 कवि-कविता-कवित्त का महके        ऐसा       इत्र मानष   को  शीतल  करे गर्व    करें     सब    मित्र।                  कविता  उर का  भाव है                  बिनु  स्वर  करती  जिक्र                  रहकर  ये  अनबोल  भी                  करती   सब  की   फिक्र। शक्ति  कल्पना की आंके कवि  का  रचित  कवित्त कविता कवि की भी करे चित्रण     सभी    चरित्र।                सूरदास तुलसी कबीर की                कृति  हैं   रस  की   खान                मर  के  भी वे  अमर  हुए                कविता    संग    रसखान। कलमकार- विजय मेहंदी (कविहृदय शिक्षक) जौनपुर, उत्तर प्रदेश सम्पर्क सूत्र- 91 98 85 22 98

अमरनाथ सोनी अमर

कविता-बिहार की दुर्दशा| सबका है भंडार बिहार में, मैं मान रहा हूँ| दुनिया की है सभ्य संस्कृति, जान रहा हूँ|| शूर-शहीदों वीरों का प्यारी धरती है| सभी धर्मों के ममता का सागर महती है|| क्राँति वीर नारायण विट्रिश शासक संहारक थे| जरासंध शूरवीर बलशाली सब उत्पादक थे|| लोकतंत्र की जननी  यही तो धरती है| गौतमबुद्ध के दिव्य ज्ञान की  महती है|| महावीर गोविन्द जन्म गुरु  दाता है| मुगलों से सब विजय किए सब भ्राता है|| कुँवर शूर जननायक  सच्चिदा जन्म लिए | विजय कीर्ति यश गान देश को खूब दिए|| तक्षशिला नालंदा का अवशेष यहाँ| लेता दुनिया ज्ञान मूल अधिकार यहाँ|| माँ सीता के जन्म भूमि की धरती है| इस बिहार की कीर्ति अमर जग  बहती है|| राजगीर पबई पहाड़  भी वन स्थित | शूर वीर शेरों दहाड़ से खल  कंपित || उमगा देव दुलार सूर्य मंदिर स्थित है| बहे प्रेम की धार यहाँ भी सीमित है|| गया फाल्गु में पिंडदान से पूर्वज तरते| सभी वीर चाणक्य दान धारी रहते|| कवियों का भंडार रहा इस धरती पर| साहित्यों की नदी बहाए जगती पर|| विश्व जगत की अनुपम धरती यह बिहार है| भाईचारा प्रेम नदी बहती बिहार है|| फिर क्यों जंगल राज उदय होता  बिहार मे

ब्रजेन्द्र मिश्रा ज्ञासु

ग़ज़ल  212   212  212 212  2 जानकर  भी  अरे  हम  छले  आ रहे  हैं मुहब्बत  में  तिरी  हम  जले  आ रहे  हैं हम  सदा   ही  तुम्हें   चाहते  यूँ    रहेंगे आपको  ही   लगाने   गले  आ   रहे  हैं बेवफ़ा  या वफ़ा का नहीं है गिला कुछ जिंदगी  हो   जताने   चले  आ   रहे  हैं है अजब  ये कहानी  हमारी सनम जी लोग बेकार  ही  हाथ  मले  आ रहे  हैं वो  अरे  दो  दिनों  की  मुलाकात  थी  क्यूँ  अधूरे  सपन  यूँ  पले  आ  रहे हैं यार अपना समझ के बताया जिसे सब छाति  पे  मूँग  वे  ही  दले  आ  रहे  हैं पाल  झूठा  गुमाँ  जो  बड़े  मगरूर थे ऊँठ  वे  अब  पहाडों  तले  आ  रहे हैं आज कैसा  जमाना अरे  आ  गया है आम्र तरु  पे निबोली फले  आ रहे  हैं ज्ञासु विषधर हुये  थे बुरे  वक्त में जो सम्हलना वे अभी बन भले आ रहे हैं © ब्रजेन्द्र मिश्रा 'ज्ञासु'  📱 07349284609 🏠 सिवनी, मध्यप्रदेश 🏠 बैंगलोर, कर्नाटक

रामकेश एम.यादव

औरत! घर  को  घर  देखो  बनाती  है  औरत, रंग - बिरंगे  फूल  खिलाती है  औरत। न जाने  कितने  खेले गोंद   में  देवता, उम्रभर औरों के लिए जीती है औरत। लाज- हया धोकर  कुछ बैठे  हैं देखो, कभी-कभी कीमत चुकाती है औरत। जिद पर आए तो जीत लेती है मैदान, झाँसी की रानी  बन  जाती  है औरत। नारी को कमजोर तुम कभी न समझो, मंगल- चाँद तक  वो  जाती  है औरत। पाकर के मौत फिर से देती है जिन्दगी, कितनी  शक्तिशाली   होती  है  औरत। चुपचाप कितनी  सहती है वो  जिल्लत, जमाने  का  गम  पी   जाती  है  औरत। वो ताकत है देश की,ताकत है विश्व की, पीठ  पर  वो  रोटी   पकाती  है  औरत। औरत न होती तो समझो दुनिया न होती, मन   को  सुकूँ   भी  तो  देती  है  औरत। बुझा दो रिवाजों की जलती उस अग्नि को, एक   देह  भर  ही  नहीं  होती  है  औरत। रामकेश एम.यादव, ( रायल्टी प्राप्त कवि व लेखक), मुंबई

विजय मेहंदी

21 मार्च  " विश्व वन दिवस "  पर एक आह्वान--       लगाओ  धरा  पर   तुम  वृक्ष   इतने,       धरा ये  अछूती   कहीं  रह  न  जाये।       ला  दो   हरितिमा   यूं    तुम  धरा पे,       नीले  गगन  सी , हरी  धरा  ये सुहाए।      हो  बरसात   जिससे   इतनी  धरा   पे,      जमीं कहीं बंझ  धरा की रहने न पाये।      बर्फबारी  हो  धरा पर यूं  खूब जमकर,      शृंखलाएं  सफेद  चादर से ढ़क  जायें।     ठंढ़क बढ़े धरा पे कुछ माष दिवस तक     तपिस इस धरा पे  और  बढ़ने न  पाये।     हो  हिम  संघनन उन  दोनो   ध्रुवों  पर,     सागर का जलस्तर कहीं  बढ़ने न पाये।     वृक्षों  की  रक्षा  हम  करें इस कदर कि,     हरे  वृक्ष  काटने  की  हिम्मत  न  आये।     लें ये संकल्प हम सब मिलकर दिल में,     बहुगुणा की आत्मा को शान्ती पहुंचाए। ==============================  रचना- विजय मेहंदी (कविहृदय शिक्षक) कन्या कम्पोजिट विद्यालय शुदनीपुर,मड़ियाहूँ,जौनपुर(उoप्रo)  9198852298

पुष्पा निर्मल

सरस्वती वंदना वीणा पाणी माँ शारदे, मुझको ज्ञान दिजिए। स्वेत वस्त्र धारणी कमल पुष्प विराजती हाथ ग्रंथ साज कर, मैं अनपढ़ अज्ञानी, ज्ञान का भंडार भर दिजिए। पुजा अर्चना कुछ न जानूं, मैं नादान बालक तेरा।  माँ कृपालु कुछ तो मुझ पर,अहसान कर दिजिए।।  भर दो झोली माँ मेरी, शब्द ज्ञान की बरसात मुझपे भी कर दिजिए। आजाऊँ किसी के काम, माँ क़लम में ओज सारे भर दिजिए। बुद्धि विद्या दायिनी माँ, कृतार्थ से मुझको भरो। मोह माया जंजाल से, मुक्त कर हृदय मेरे भक्ति भर दिजिए।।     पुष्पा निर्मल, बेतिया बिहार

विजय मेहंदी

' *।। सरस्वती वन्दना गीत ।।*     तुम्ही शारदे , तुम्ही सरस्वती।     हर एक हुनर में,तुम्ही हो बसती।     तुम्ही ब्राह्मी , तुम्ही भारती।     तुम्ही सुरों में , सभी के रहती।     तुम्ही सारथी , तुम्ही सहारे।     हर एक विधा को, तूं ही निखारे।     आ आ आ आ आ ~~~~~~     तुम्ही सारथी , तुम्ही सहारे।     हर एक विधा को, तूं ही निखारे।     तुम्ही विधा हो , तुम्ही विधात्री।     तुम्ही हो कविता,तूं काव्य-शक्ती।     तुम्ही शब्द हो , तुम्ही हो वाणी।     तुम्हारे बिन हम, गुण-हीन प्राणी।                                                                             अबोध नन्हें से बाल हम हैं।     तुम्हारे बिन माँ , निढाल हम हैं।     आ आ आ आ आ ~~~~~~     अबोध नन्हे से , बाल हम हैं।     तुम्हारे बिन माँ , निढाल हम हैं।     तूं मातृ-दृष्टी बनाये रखना।     शरण में अपने बिठाये रखना।     तुम्ही शारदे , तुम्ही सरस्वती।     हर एक विधा में,तुम्ही हो बसती। गीतकार- विजय मेहंदी(कविहृदय शिक्षक) कन्या कम्पोजिट उत्कृष्ट विद्यालय शुदनी

निहार

नीहार के दोहे - सच को दे सम्मान जो, वरण करे ईमान।  बला टले हर हाल में, सारे रोग-निदान।। १।। लालच भी शैतान है, पाप-सना है स्वार्थ।  झूठ-सने सुख त्यागकर त्वरित साध परमार्थ।। २।। सबसे सरल उपाय यह, दिल के परदे खोल।  ऐहिक वैभव-कामना-कीच निकल सच बोल।। ३।। भली भलाई लोक की, इतर तिमिरमय शोक।  बिछुड़ी आली कोक की, ओषधि है आलोक।। ४।। बुरे जनों की प्रीति का घातक पाप-प्रसाद।  चातक ज्यों रट 'पीउ' भी मिटे नहीं अवसाद।। ५।। सच ही जिसका धर्म हो, सत्य-सनी हर साँस।  उसे न कोई भूख है, उसे न कोई प्यास।। ६।। सच का माथा क्यों झुके, सच का सच्चा प्यार।  मानो सच भगवान है, भवसागर-पतवार।। ७।। जिस पाखण्डी ने ठगा बनकर खेवनहार।  डूबेगा मँझधार वह, सत्य कहे नीहार।। ८।। [ नीहार-नौसई-अमलदार नीहार]

अतिवीर जैन पराग

बैरन भई हम कान्हा बिना  उद्बो ,मत हमें उपदेश सुना , हम ही जानत विरह है क्या l हम सब हैं कान्हा की दासी ,  कान्हा दर्शन की अभिलाषी ll कान्हा हमसे प्रेम बढ़ाया , चोरी छिपके माखन खाया l मटकी फोड़ी , वासन चुराए , अपने मोह  जाल में फंसाये ll  बंसी धुन पर ,हमें नचाया ,  हम सबन संग रास रचाया l  एक अकेला कान्हा, देखो ,  सब गोपियन के दिल चुराया ll हमने सच्चा ,प्रेम है किना , कान्हा दूरी , सुख चैन छीना l तू क्या समझे विरह की पीड़ा , कान्हा हमरा दिल है छीना ll उद्बो ,मत हमें उपदेश सुना , निर्गुण हमीं ,समझ ना आवे l हमने छोड़ा खाना पीना , बैरन भई हम, कान्हा बिना ll  अतिवीर जैन पराग पूर्व उपनिदेशक, रक्षा मंत्रालय  कवि, लेखक , व्यंग्यकार एवं   साहित्यकार,स्वतंत्र टिप्पणीकार  मोबाइल 94569 66722

छत्र छाजेड़ फक्कड़

“भाटो अर दरद “का हिंदी अनुवाद :- पत्थर  और  दर्द ========= छत्र छाजेड़ “फक्कड़” दुनिया सोचती होगी क्या और कैसा रिश्ता पत्थर और दर्द में ये कैसा तालमेल..... कितना ही सिर पटको पत्थर पर दर्द तो सिर पटकने वाले को ही होता  ठोकर लगे, या फिर खुद इंसान भिड़े पत्थर से और तो और कभी पत्थर स्वत: आ लगे और फोड़ दे ललाट मगर दर्द तब भी होता है इंसान को ही क्योंकि चैतन्य है इंसान और बेचारा पत्थर वो तो है जड़ वो क्या समझे किसे कहते हैं दर्द....? चेतना युक्त इंसान रो लेता है अपने दर्द का रोना मगर ये गूँगा पत्थर कहे तो किस से कहे.. कौन समझेगा मूक की भाषा कौन समझेगा बेचारे का दर्द पर हे मित्र...! कभी सोचा है कि...? वो भी कराहता होगा...जब घिसटता होगा गाड़ियों के टायरों साथ वो भी बिलबिलाता होगा...जब ठोकरें खाता होगा जानवरों के पैरों की दर्द तो उसको भी होता होगा जब.....बेवजह लुढ़कता होगा  गलियों की बेरहम उठा पटक में परंतु इन्सान को क्या..? वो कैसे समझेगा  दर्द दूसरों का समय है भी उसके पास समझने को वो व्यस्त है स्वार्थ सिद्धि में..... पर हल्की सी करूणा भी हो जहाँ वो महसूस करेगा भी और जैसे कलम ने लिखा भी कि एक

मंजु तॅंवर

माॅं शारदे को नमन *आशा दीप*🙏 आश दीप सम्पूर्ण भुवन जलता रहे  आनंदमय उपवन पुण्य फलता रहे।   उरपूर मुखरित यथार्थ बोध हो  नहीं छलावा भ्रम का छलता रहे।    व्यंजना मधुर सुरीली धार हो अंक अंकित बस प्रभु आधार हो।  निश्चित पाथ चुन प्राणी चलता रहे आस दीप सम्पूर्ण भुवन जलता रहे।   स्वरचित उक्ति    मंजु तॅंवर

एस के कपूर श्री हंस

*।।रचना  शीर्षक।।* *।। जिन्दगी अभी बाकी है।।* *।।विधा।।मुक्तक।।* 1 नई उड़ान नए आगाज़   का वक़्त बाकी है। नई सोच किसी नए साज का वक़्त बाकी है।। अभी तो खेली है बस पहली पारी जीवन की। दूसरी पारी का  खुलना राज़ अभी बाकी है।। 2 अधूरी हसरतों को नए परवाज़ अभी देना है। जो पीछे छूट गए उनको आवाज़ अभी देना है।। अभी तक जो सुप्त  ललक लगन कई कामों की। जगाकर उस जोश कोअपनाआज अभी देना है।। 3 देश समाज के लिए सरोकार अभी निभाना है। बढ़करआगे कुछ नया करके दिखाना है।। अभी उम्र गर साठ   की  हुई तो क्या बात। नई नई मंजिलों पर लगानाअभी निशाना है।। 4 बहुत दूर जाना कि जिंदगी अभी बाकी है। जोशो जनून का जाम खुद बनेगा साकी है।। बच्चों परिवार को दिखाना हरअच्छा रास्ता। जिस पल ठहरे बनेगा जीवन बैसाखी है।। *।। इंसान बनने का सफर* *हमेशा जारी रखो।।* *।।विधा।। मुक्तक ।।* 1 चलता चलअभी इंसान होने का सफर बाकी है। अभी समाज के लिये करने की डगर बाकी है।। बहुत से इम्तिहान देने हैं अभी इस जीवन में। अभी हौसलें दिखाने को जिगर बाकी है।। 2 बनना है अभी एक अच्छा इंसान जीवन में। अभी होना किसी दुर्बल पर मेहरबान जीवन में।। किस

अमर क्रांतिकारी गंगू मेहतर - डाॅ प्रखर दीक्षित

*लघु नाटिका* *अमर क्रांतिकारी गंगू मेहतर*                   ~~~~~~~~~~~~~~ *स्थान- बिठूर कटरी का सुनसान क्षेत्र*  *समय : दिन ( पूर्वाह्न 11:00 बजे)*                *पात्र -*                         *गंगू मेहतर - बहादुर जांबाज क्रांतिकारी*                         *चंद्रबली - सरकारी वकील*                         *पं० राम गुलाम- बैरिस्टर, बचाव पक्ष वकील*                          *एलिस, जोसेफ, दीनू' ,फेरू - सरकारी पक्ष गवाह*                           *एल्फ्रेड विक्टर- सेशन जज*                          *नाना साहब पेशवा - बिठूर के शासक*                          *मृणालिनी - पेशवा की पत्नी , विमर्शी सलाहकार*                          *तात्या टोपे - बिठूर राज के महामात्य एवं पेशवा के निकटम मित्र*                         *अजीमुल्लाह - पेशवा परिषद के सलाहकार तथा नाना साहब के घनिष्ठ  मित्र*                          *जाॅन निकोलस - प्रशासनिक अधिकारी*                          *गुप्तचर , जेलर, पुलिस अधिकारी, पुजारी , जल्लाद , दो पुलिस कर्मी इत्यादि*                         *दृश्य -एक* ( *दृश्य* - म

रामकेश एम. यादव

क्यों हवा ढूँढ रहे हो ! मैं हूँ एक सूरज क्यों अंधेरा ढूँढ रहे हो, मैं हूँ तेरा समंदर क्यों कतरा ढूँढ रहे हो। घर बनाने में उसने नपा दी पूरी उमर, घर जलाने का बताओ क्यों पता ढूँढ रहे हो। उतार तो लिया पहली ही नजर में दिल के अंदर, तो बताओ क्यों नींद की दवा ढूँढ रहे हो। महंगाई छीन ली सारा जहां का सुकून, आटा हुआ है गीला,क्यों तवा ढूँढ रहे हो। काटा है तूने जंगल कुछ पैसों के चक्कर में, उखड़ रही हैं साँसें क्यों हवा ढूँढ रहे हो। मेरे दिल में वो रहती है उसे जलाऊँ कैसे, कब्र में लटका है पैर, तू अदा ढूँढ रहे हो। हिसाब नहीं कर पाओगे आज के रहनुमा का, चमचमाती धूप में क्या सजा ढूँढ रहे हो। बहा नदियों खून तब जाकर मिली आजादी, जो लूट रहे हैं देश,उनका पता ढूँढ रहे हो। तोतली उम्र निकल गई तो समझो मजा गया, अब इस ढलती उम्र में क्या नखरा ढूँढ रहे हो। लूटपाट,हत्या,डकैती और कितना किया खून, आया जाने का वक़्त तो खुदा ढूँढ रहे हो। रामकेश एम. यादव (रायल्टी प्राप्त कवि व लेखक), मुंबई

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

लेखनी के यशस्वी पुजारी- कालिदास की उपमा उत्तम,बाणभट्ट की भाषा, तुलसी-सूर-कबीर ने गढ़ दी,भक्ति-भाव-परिभाषा। मीर व ग़ालिब की गज़लों सँग,मीरा के पद सारे- "प्रेम सार है जीवन का",कह,ऐसी दिए दिलासा।।                       बाणभट्ट की.........।। सूत्र व्याकरण के सब साधे,अपने ऋषिवर पाणिनि, वाल्मीकि,कवि माघ सकल गुण, पद-लालित्य में दण्डिनि। कण्व-कणाद-व्यास ऋषि साधक,दे संदेश अनूठा- ज्ञान-प्रकाश-पुंज कर विगसित,हर ली सकल निराशा।।                    बाणभट्ट की.............।। गुरु बशिष्ठ,ऋषि गौतम-कौशिक,मानव-मूल्य सँवारे, औषधि-ज्ञानी श्रेष्ठ पतंजलि,रोग-ग्रसित जन तारे। ऋषि द्वैपायन-पैल-पराशर,कश्यप-धौम्य व वाम- सबने मिलकर धर्म-कर्म से,जीवन-मूल्य तराशा।।                 बाणभट्ट की.............।। श्रीराम-कृष्ण,महावीर-बुद्ध थे,पुरुष अलौकिक भारी, महि-अघ-भार दूर करने को,आए जग तन धारी। करके दलन सभी दानव का,ये महामानव मित्रों- कर गए ज्योतिर्मय यह जीवन,जला के दीपक आशा।।               बाणभट्ट की...............।। किए विवेकानंद विखंडित,सकल खेल-पाखंड, जा विदेश में कर दिए क़ायम, भारत-मान अखंड। श्रीअरविंदो ने भी

डा. नीलम

*गुलाब* देकर गुल- ए -गुलाब आलि अलि छल कर गया, करके रसपान गुलाबी पंखुरियों का, धड़कनें चुरा गया। पूछता है जमाना आलि नजरों को क्यों छुपा लिया कैसे कहूँ , कि अलि पलकों में बसकर, आँखों का करार चुरा ले गया। होती चाँद रातें नींद बेशुमार थी, रखकर ख्वाब नशीला, आँखों में निगाहों का नशा ले गया, आलि अली नींदों को करवटों की सजा दे गया। देकर गुल-ए-गुलाब......      डा. नीलम

डॉ० ओम् प्रकाश मिश्र मधुब्रत

*मनहरण घनाक्षरी छंद* विधान- 8,8,8,7=31 वर्ण प्रति चरण। प्रत्येक चरण की प्रथम, द्वितीय यति पर अंत्यानुप्रासिकता और चारों चरण समतुकांत। चरणान्त लघु गुरु। =================== 🌹 *होली न जलाइए* 🌹 =================== आज करके ठिठोली,     द्वैष की जलाओ  होली,       होली होली होलिका की,                  होली न जलाइए। रंग बरसात हुई,      राधा राधा बात हुई,         सरारारा बोली बोली,                 गोली न चलाइए।। प्रेम की बजाओ बीन,       बोलो नहीं दीन हीन,           बोलकर मीठी बोली                    बांसुरी बजाइए। प्रेम की सजाए थाल,     मल लो गुलाल भाल,            गले में बैजन्ती माल,               कृष्ण को ही ध्याइए।। *@मधुब्रत-सृजन-साधना* *©® डॉ० ओम् प्रकाश मिश्र 'मधुब्रत'

प्रखर दीक्षित

हे योगेश्वर......... हे योगेश्वर प्रभु परमेश्वर , पूर्ण प्रणाम प्रभंजन हो। जय अखिलेश्वर श्री सर्वेश्वर  प्राणाधार निरंजन हो॥ ब्रजवासी मधुसूदन हो..........      हे योगेश्वर......... बैकुण्ड बिहारी , सुदर्शन धारी , वत्सल भक्त खरारी प्रभो।  दीन दयालु कृपालु हो भगवन, दुखिया जन हितकारी प्रभो॥        आदि अनादि विराट सूक्ष्म मय,            प्रभु जी अलख निरंजन हो॥       हे योगेश्वर.........     सृष्टा दृष्टा व्यापक कण- कण , निराकार साकार रमे।  जड़ जंगम चेतन के स्वामी , गतिमान सृष्टि लय कहाँ थमें॥         सुनो द्वारिकाधीश आर्तस्वर,           नाथ तुम्हीं भव मंजन हो॥      हे योगेश्वर......... गोपिन का महारास तुम , नंद दुलारे तुम छैया।  उठा पार्थ गीता गुह्य सुनकर, तुम ही छलिया धेनु चरैया॥       विप्र सुदामा मीत वैष्णव,            कमलनयन सुखरंजन हो॥ प्रखर दीक्षित फर्रुखाबाद