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अमरनाथ सोनी अमर

कविता- चित्रांकन!  16-16 मात्रा भार!  झांसी   रानी   अवतार  यही ,  आयी  है  भारत   में  प्यारी! कंधे  में   बेटा   लटका  कर,       लकडी वह लाती नितयारी!!  जंगल से  लकडी़ लाकर वह,  भोजन  को  वही  पकायेगी!  अपने  प्रानी  परिवार   सभी,  अतिथों भोजन करवायेगी!!  धर्म,कर्म रत रहती निशदिन,  असहायों  सेवा  वह  करती!  माँ  भारत  की  वीर  सिंहनी,  कभीज्ञ न मुख मोडा़ करती!! गर्म, ठंड ,बरसात कभी हो,  वह सदा कर्म करती रहती!  चाहे  कोई   मजबूरी  आये,  कर्म- निर्वाह  नहीं छोड़ती!!  अमरनाथ सोनी" अमर " 9302340662

सुधीर श्रीवास्तव

लेख ●●●● मन से जीत का मार्ग *****************     एक कहावत है 'हौंसलों से उड़ान होती है,पँखों से नहीं'। यह महज कहावत भर नहीं है।अगर सिर्फ कहावत भर होती तो आज अरुणिमा सिन्हा, सुधा चंद्रन, दशरथ माँझी और हमारे पूर्व राष्ट्रपति स्व.डा. ए.पी.जे.अब्दुल कलाम ही नहीं बहुत सारे अनगिनत लोग सुर्खियों के बहुत दूर गुमनामी में खेत गये होते।          मैं अपना स्वयं का उदाहरण देकर स्पष्ट कर दूँ कि जब 25.05.2021 को जब मैं पक्षाघात का शिकार हुआ तब चारों ओर सिवाय अँधेरे के कुछ नहीं दिखता था। शायद  ही आप सभी विश्वास कर पायें। कि यें अँधेरा नर्सिंग होम पहुँचने तक ही था, लेकिन नर्सिंग होम के अंदर कदम रखते ही मुझे अपनी दशा पर हंसी इस कदर छाई, कि वहां का स्टाफ, मरीज और उनके परिजनों को यह लग रहा था कि पक्षाघात के मेरा मानसिक संतुलन भी बिगड़ गया है। फिर भी मुझे जैसे कुछ फर्क ही नहीं पड़ रहा था। हमारी धर्मपत्नी के गुस्से का तो कहना ही क्या? चिकित्सक महोदय नें भी मेरे इस तरह हँसने का कारण पूछा- तो मैंने यही कहा कि मुझे खुद नहीं पता। लेकिन मेरा खुद पर भरोसा मजबूत हो रहा था, जिसका परिणाम यह है कि मात्र छः दिन

डाॅ० निधि त्रिपाठी मिश्रा

कर्म के दीप जलाओ कर्म का दीपक, पार  बाधा सब हो जाये।  कर्मरत  हो  मगन  है जो, वही  मंजिल  सदा  पाये। जलाओ कर्म का दीपक ... विचारो को सुदृढ़ कर लो, रगों  में  हौसला  भर लो।  जमीं हासिल हुई तुमको,  मुठ्ठी में आसमा कर लो।  जलाओ कर्म का दीपक....  कदम काँपे नहीं  हरगिज, नजर मंजिल पे गड़ जाये।  एकचित्त मन यदि स्थिर, सफलता सन्निकट आये।  जलाओ कर्म का दीपक...  भुजाओं  में भीम सा बल,  लक्ष्य  अर्जुन सा हो जाये। सत्य पर हो  युधिष्ठिर सा, वही रण  में  विजय पाये। जलाओ कर्म का....  कर्म में हो  निरत  हरदम,  भाव निष्काम जग जाये।  कर्म दीपक गहन तम में,  प्रदर्शक पथ का बन जाये।  जलाओ कर्म का दीपक.... समर्पित हो   कर्म पर तुम, कर्म   पूजा  ये  बन  जाये। कर्म  करना   तेरे  वश  में , क्यूँ प्रतिफल सोच घबराये।  जलाओ कर्म का दीपक...  मिलेगा तुम को वह एकदिन,  जो  कुछ   तुमने  है  सोचा।  अहर्निश  हरि   ने  तेरे   ही, कर्म  के  भाव   को   देखा। जलाओ कर्म का दीपक...  कर्म  करता है जो निष्काम,  कर्मयोगी    वही      बनता। कर्म के  दीप  हो  उज्ज्वल,  जो  सत्कर्मों  से  है बनता । जलाओ कर्म का दीपक...  विकारों  से 

प्रखर दीक्षित

*दोहे* कोटर नैना अधखुले ,चंचल तीक्ष्ण कटार। अनराए अल साए से , करैं वार पै वार।। सुभगा  अनंगे गोरकी , मृगणी जस यहु नैन। हिलत मिलत लजरात री!, बिना मिलै कंह चैन।। श्वेत स्याम रंग चक्षु द्वै, ता पर डोरा लाल। ताकैं ताड़ै बेंधते , करते हिया हलाल।। कजरारे नैना सुघर , भौंहैं वक्र ललाम। सुभग सुलोचनि भामिनी , मानौ मूर्त सकाम।। प्रखर दीक्षित फर्रुखाबाद

संजय जैन बीना

*बेटियाँ होती हैं* विधा: कविता  ओस कि एक बूँद सी  होती हैं बेटियाँ।  स्पर्श खुरदरा हो तो  रोती हैं बेटियाँ। रोशन करेगा बेटा तो  एक ही कुल को।  दो दो कुल कि लाज  होती हैं बेटियाँ।।  कोई नहीं है दोस्तों  एक दूसरे से कम।  हीरा अगर है बेटा तो  मोती हैं बेटियाँ। काँटों कि राह पे  ये खुद ही चलती रहेंगी।  औरो के लिए फूल  बोती है बेटियाँ।।  विधि का विधान हैं यही और  समाज कि है परम्परा।  अपने प्रियो को छोड़,  पिया के घर जाती है बेटियाँ।  बेटी धन पराया होती है,  यही सुनते आजतक आये है।  दर्द विदाई का क्या,  आज समझ में हमें आया है।।  गम और ख़ुशी का रिश्ता कैसा  यह बड़ा ही अजीब है भाई।  हमारी परछाई हम से  ले रही है अब विदाई ……।  करके बेटी का कन्या दान,  मानो सब कुछ अब पा लिया।  और अपने जीवन का एक  सत्य आज से ही जान लिया।।  बेटियाँ तो होती है  दो कुलो कि शान।  जन्म लेकर पलती बड़ी होती  माँ बाप के आँगन में।  तभी तो वो कहलाती है  माँ बाप कि जान।  शादी के बाद हो जाती है  पिया कि जान।  और व्यवहार से समाज में  पहचान बनाकर।  रोशन कर देती है  दो कुलो कर नाम।  इसलिए संजय कहता है  कि बेटियाँ होती है।  हर परिवार

कालिका प्रसाद सेमवाल

माँ वीणापाणि शारदे ******************* माँ वीणापाणि शारदे, माँ तुमसे मेरी यही पुकार। झोली भर दो माँ ज्ञान से, दूर करो जीवन से अंधकार। विद्या बुद्धि माँ सहजता दो, हो जाय हृदय में प्रकाशित। चरणों में हूँ,  माँ  तुम्हारे, पूरी करना आस हमारी।  सबके हित की बात लिखूँ मैं,  कभी किसी बुरा करुँ न मैं। चुन-चुन कर सद् गुण के मोती, मेरी झोली में  तुम भर देना। सुसंस्कृति से पूरित करना, मंगल मन मेरा कर देना। वीणा की झंकार से मैया, जीवन सबका सुखमय करना। अज्ञान तिमिर को हर माँ, हम तो मूढ़  अज्ञानी   है। काम-क्रोध अरु लोभ मिटे, मन में सबके प्रति प्यार रहे। ******************** कालिका प्रसाद सेमवाल मानस सदन अपर बाजार रुद्रप्रयाग उत्तराखंड

एस के कपूर श्री हंस

*।।रचना शीर्षक।।* *।।पत्थर के होते जा रहे संवेदना शून्य बड़े शहर।।* *।।विधा।।मुक्तक।।* 1 बड़ी अजीब सी     बड़े शहरों  की रोशनी  होती है। दिन खूब   हँसता  पर      रात बहुत  रोती         है।। उजालों में भी     चेहरे     यहाँ पहचाने   नहीं  जाते। सच सिसकता और   झुठलाई नींद चैन की सोती है।। 2 आदमी भटकता रहता है यहाँ कंक्रीट के जंगलों में। संवेदना सुप्त  रहती  है   यहाँ सबकी धड़कनों  में।। फायदे नुकसान के  गणित में गुम रहते हैं लोग यहाँ। हर बात  उलझती  रहती यहाँ राजनीतिक दंगलों में।। 3 संबंध निभाने का समय लोगों के पास होता नहीं है। पाने को  रहता  आतुर  हमेशा कुछ   खोता नहीं   है।। एकल परिवार का चलन   बढ़ रहा   बड़े   शहरों   में। दूर   रहते बेटा,बहु,पोती,पोता, कोई पास होता नहीं हैं।। 4 अजब गजब सा सन्नाटा पसरा रहता है यहाँ  घरों में। भगदड़ मची रहती  यहाँ  बाहर हर आदमी के परों में।। खामोशी में    छिपा रहता कुछ, अज्ञात कोलाहल सा। मीलों की     दूरी रहती हर पास,  की ही दीवार  दरों  में।। एस के कपूर श्री हंस

डॉ० विमलेश अवस्थी

  बुझा दिया हूँ ************ बुझा दिया हूँ या खाली पैमाना लगता हूँ i अपनी ही देहरी परमैं ,अनजाना लगता हूँi अन्तर का तम हरने को मैं,था पर्याप्त अकेला i जहाँ रुका बस वहीं ज़ुड़ गया,अरमानों का मेला i सब सपने गल गये कि अपने भी हो गये पराये, जीवन पथ पर जिस दिन से ,आयी है संध्या वेला  अब तो बन्द पड़ा सा इक तहखाना लगता हूँ i बुझा दिया हूँ या खाली  पैमाना लगता हूँ i जिनके लिए कभी मैं प्रेरक जीवन दर्शन था i जिनके लिये कभी दर्पण,अभिनन्दन ,वन्दन था i वक्त बदलते बदल गया सब,उनका चिन्तन भी, जिनके लिये कभी मैं सुरभित चन्दन था i उनको मैं बूढ़ा सनकी,दीवाना लगता हूँ। बुझा दिया हूँ,या खाली पैमाना लगता हूँ i जिनके लिये,झमेले झेले,कोई आह नहीं i जिनके लिये स्वयं के सुख की,रक्खी चाह नहीं i केवल अभिलाषा थी कि वे आगे बढ़ जाएँ आज उन्हीं को मेरे सुख -दुख की परवाह नहीं उनकी नज़रों में बिल्कुल बेगाना लगता हूँi बुझा दिया हूँ,या खाली पैमाना लगता हूँi रचनाकार डॉ० विमलेश अवस्थी कवि एवम् वरिष्ठ नागरिक

छत्र छाजेड़ फक्कड़

प्रेम **** छत्र छाजेड़ “फक्कड़” प्रेम करीजै कद पण ठा पड़ै होज्यावै जद... मींरा बावळी छोड्यो राजपाट फिरी घाट घाट.... राधा गिरस्ती संभाळी पण  हिये मोहन स्यूं प्रीत पाळी.... सलीम अनारकळी नै चाही घणैमान कर बाप स्यूं बग़ावत मचायी घमसाण.... ओ प्रेम भी होवै अजब ग़ज़ब बसै मन झरै नयन मरजाद भूलज्या रिस्ता बापड़ा कठै रा कठै झूलज्या पण  सो कीं दूजै पासै कुण खटकै आसै पासै जद प्रेम होज्या..... _______________________ धुंवे का रहस्य *********** छत्र छाजेड़ “फक्कड़” धुंवे से ढका हो जब व्यक्तित्व  मुश्किल होता है बोलना..... शब्द पिघलने लगते हैं अंदर ही अंदर और अचानक सामने आता है प्रश्न कि आख़िर  ये धुंवा आ कहाँ से रहा है...? नज़रें  ढूँढने लगती है धुंवे का रहस्य पर अब धुंवा कहाँ रह गया धुंवा एकाकार हो गये धुंवां और व्यक्तित्व  लोप हो गया धुंवे का रहस्य धुंवे में फक्कड़ का नमन

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

सोलहवाँ-2 क्रमशः....सोलहवाँ अध्याय (गीता-सार) अहहिं असुर-सुर दूइ सुभावा। दानव-देव भूतनहिं पावा ।।     प्रबृति-निबृति नहिं जानहिं असुरा।     कथन असत्य,चरित नहिं सुथरा।। मानहिं जगत आश्रयइ हीना। बिनु इस्वर जग मिथ्या-छीना।।      स्त्री-पुरुष-मिलन जन भवहीं।      काम-भोग-सुख लेवन अवहीं।। अस जन मंद बुद्धि अपकारी। जगत-बिनासक भ्रष्टाचारी।।      दंभ-मान-मद-युक्त,न दाना।      मिथ्यावादी जन अग्याना।। यावद मृत्युहिं रत रस-भोगा। बिषयइ भोग-अनंद-कुभोगा।।      रहइ लछ्य बस तिन्हकर एका।      काम-क्रोध-धन-लोभ अनेका।। धन-संग्रह अरु चेष्टा-आसा। करहिं इनहिं मा ते बिस्वासा।।      मानहिं स्वयं सुखी-बलवाना।       सिद्धि-प्राप्त ईस -भगवाना।। बैभव-भोगी,रिपु जन-घालक। बड़ धनवान,सकल कुल-पालक।।      अपर न कोऊ मोंहि समाना।      करब जग्य अरु देउब दाना।। चित-मन-भ्रमित अइस अग्यानी। असुर-सम्पदा-प्राप्त गुमानी।। दोहा-मोह रूप के जाल महँ,फँसत जाँय अस लोग।        सुनहु पार्थ ते जा गिरहिं,नरकइ-कुंड-कुभोग।।                     डॉ0 हरि नाथ मिश्र                     9919446372    क्रमशः.......

नूतन लाल साहू

आज हलषष्ठी है प्रेम प्रेम सब कोई कहें प्रेम करें न कोय प्रेम ऐसा करना चाहिए जैसे दही मक्खन बन जाती है। संतान के खातिर मातृ शक्ति महुआ के पतरी में पसहर भात खाती है बिना हल चले भुइयां से चावल और छैः जात के भांजी जुगाड़ कर लाती है। भइंस के दूध भइंस के दही मन में अटल रखती है विश्वास लइका मन के खातिर माता रहती है कमरछठ उपवास। कितना सुंदर कितना प्यारा त्याग तपस्या की अदभुत नजारा प्राकृतिक छटा से आच्छादित सगरी की पूजा करती है। पूत हो तुम कपूत नही मां का तकदीर बनें रहना सबसे पहले तुम बेटा हो मां की त्याग को मत भूलना लइका मन के खातिर माता रहती है कमरछठ उपवास। सगरी में चढ़ाते हैं बेल की पाती दूध नरियर और कपूर के बाती पंडित सुनाते है कथा सगरी की होती है पूजा आरती लइका मन के खातिर माता रहती है कमरछठ उपवास। नूतन लाल साहू

रामनाथ साहू ननकी

कुसुमित कुण्डलिनी  ----       ------ गुमसुम----- गुमसुम बैठा आजकल , कल का वह बेपीर । जाने कब कैसे लगी , उसके दिल पर तीर ।। उसके दिल पर तीर ,  लुप्त हैं सारे अंजुम । कैसे हो अब दूर , छूट जाये मन गुमसुम ।। गुमसुम सी है जिंदगी , बैठी आज उदास । कल तक थी जो रौनकें , आज नहीं उल्लास ।। आज नहीं उल्लास , रहा अपने में ही गुम । लगता जीवन शून्य , दूर कब हो यह गुमसुम ।। गुमसुम मुरझाये हुए , कैसे रहते मित्र । आसपास बिखराइए , आनंदी शुभ इत्र ।। आनंदी शुभ इत्र , गूँज जायेगा छुम छुम । उठ चल आगे देख , छोड़कर बाना गुमसुम ।। गुमसुम पंथ गँवार का , तजो रहो खुशहाल । ये जो है जीवन मिला , करना तुझे कमाल ।। करना तुझे कमाल , दबाकर भागा है दुम । भरकर चलो उमंग , नहीं रहना अब गुमसुम ।।                    -------- रामनाथ साहू " ननकी "                               मुरलीडीह ( छ. ग. )

विजय कल्याणी तिवारी

बाँट गरल खुश हो रहा ------------------------------------ बाँट गरल खुश हो रहा अजब मनुज है यार कपट भाव को भर हृदय तीरथ करे हजार। अमिय ढूंढ़ता रात दिन निज अमरत्व हिताय जो दूजों को बाँटता खुद को ही नहि भाय । कलुष भरा है आचरण कपट भरा निज सोच बहुत बढ़े नाखून से दूजे तन मन नोच । रीत नीत उल्टा चुना हुए संकुचित भाव हारा फिर रोता रहा सब कुछ द्युत के दाँव। पाखंडी का आचरण और कपट का खेल अनुपम घटना यह लगे पतन पतित का मेल। पथिक चला जिस पाथ पर उसका ओर न छोर तमस उग्र होकर सखा लील गया अब भोर । विजय कल्याणी तिवारी, बिलासपुर छ.ग.।

मधु शंखधर स्वतंत्र

स्वतंत्र की मधुमय कुण्डलिया             निशाना लगा निशाना भेदते , अर्जुन मछली आँख। जीत स्वयंवर द्रोपदी ,  बने वीर की साख। बने वीर की साख ,  लक्ष्य को प्रतिपल साधे। धरे एकता भाव , प्रीत में जपते राधे। कह स्तंतत्र यह बात, तीर जब अर्जुन ताना। भेद दिया वह लक्ष्य , चूकता नहीं निशाना।। एक निशाना साध लो , साध्य सजग हो ध्यान। साधन से ही प्राप्त हो , नित्य सफलता मान। नित्य सफलता मान , गर्व अनुभूति कराए। साथ रहे विश्वास ,  सहज नव मार्ग दिखाए। कह स्वतंत्र यह बात , प्राण का नहीं ठिकाना। निर्धारित हो लक्ष्य , ठीक तब लगे निशाना।। प्रेम निशाना नैन से ,  घायल होता मीत। बेचैनी का भाव ले , गाए प्रियवर गीत। गाए प्रियवर गीत ,  मधुर संगीत सुनाए। नृत्य करे तब हीर , राँझड़ा पास बुलाए। कह स्वतंत्र यह बात ,  सभी मिल गाओ गाना। शोभा अनुपम प्रेम , ह्रदय पर लगे निशाना।। मधु शंखधर स्वतंत्र प्रयागराज

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

गीत (16/14) कुछ भी नहीं सरल है जग में, जीवन है संघर्ष भरा। पर देता संघर्ष मधुर फल- करता तरु भी शुष्क हरा। तिनका-तिनका चुनकर पक्षी, अपना गृह-निर्माण करे। उसी घोंसले में वह रहता, तूफानों से  बिना डरे। जग रहता संघर्षशील ही- कठिनाई से बिना डरा।।      करता तरु भी शुष्क हरा।। सोना तपकर कंचन बनता, मथे दही से घृत निकले। श्रम-बूदों के संघर्षों से, गलकर ही पत्थर पिघले। खाकर रगड़ शिला पर,देखो- रूप हिना का हो निखरा।।     करता तरु भी शुष्क हरा।। सिंधु-उर्मियों से लड़ नाविक, नौका को उस पार करे। ऊँची उठें भले लहरें भी, वह बढ़ जाता बिना डरे। इसी राज को जिसने समझा- जीवन उसका है सँवरा।।      करता तरु भी शुष्क हरा।। करे उजाला बाती जलकर, तम-उर फाड़ प्रभात बने। कभी न उगतीं फसलें प्यारी, बिना पसीना बूँद सने। जीवन तो संघर्ष एक है- ग्रंथों में है यही धरा।।       करता तरु भी शुष्क हरा।।                  © डॉ0 हरि नाथ मिश्र                        9919446372

सुनीता सुवेंद्र सिंह

अनजान शहर में भारत की बेटी तय करती है सफर नितांत अकेले,,,, नहीं है कोई साथी उसका जो दे उसका साथ अनजान शहर में....! फिर भी रखती है कदम भय की दिवार को दरकिनार कर उसे पहुंँचना है गंतव्य तक! करने हैं स्वप्न साकार जो उसनेे देखें हैं अपने लिए अनजान शहर में....! रहती है अपनों से दूर अपनाती है तौर तरीके ठीक वैसे ही,,, पहनती है कोट ,बूट और कैप ढालती है स्वयं को वहां के परिवेश में भव्य इमारतों के बीच से निकली है वो बेधड़क नहीं कम दिखती वो.... लगती है हूबहू अनजान शहर की लड़कियों की तरह बढ़ गए हैं कदम उसके अनजान शहर में.....! सुनीता सुवेंद्र सिंह

कुमकुम सिंह

कृष्ण कन्हैया रास रचैया श्यामल वर्ण धारी नैन तिरछे कटारी मुख मंडल छवि अति प्यारी जन्म लिए गिरधारी। मंद मंद मुस्काए हैं आंखों में राधा की छवि बसाए हैं देवीकी मैया के गोद से बाबा वासुदेव को निहारे हैं। टोकरी सिर पर डाले  पगड़ी सिर पर बांधे सातों ताले खुल गए कान्हा वृंदावन चल दिए पांव पंखारण को तरसे यमुना छूकर यमुना को धन्य किए मंद मंद मुस्कुराते हुए शेषनाग ने फन की छतरी बनाए  इंद्रदेव सहज सरल हो गए यशोदा मैया की आंखों में निंदिया समाए सो गए सब गांव वाला नंद बाबा के घर पहुंच गए लाला। चाहूं दिशा में फैली उजियारा यशोदा के घर जन्मे है नंदलाला ढोल ताशे बाज रहे हैं गोपी गोपियां सब नाच रहे हैं। देवी देवता सब तरस रहे  देखन को सब ललच रहे  फूल माला की बरसात भयो  कृष्ण कन्हैया यशोदा के घर जन्म लियो। लाला को देखन  सभी देवी देवता है भी आए  पुष्पमाला की बरसात कराएं कंस मामा ने पूतना भी पहुंचाएं। गोविंद सब लीला जान रहे हैं  जान जान के रास रचाए है  पूतना के वध किए  कंस मामा के चाल को समझ गए। शक्तिशाली अभिमानी का घमंड चूर हुआ क्रोधित और भयभीत हुआ बुद्धि मति मारी गई। भविष्यवाणी कर गई शक्ति नारी।  तेरे अंत

शिवशंकर तिवारी

,,,,,,,,,,,,,सच गुनहगार है,,,,,,,,,,,, ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,   अम्न के  नाम  पर, हर तरफ रार है ।  लग  रही जीत सी जो वही हार   है ।।  ................................................   कब तलक दुश्मनों से  करोगे  गिला  दिल का कातिल यहाँ तेरा दिलदार है  ..............................................  हर  कोई  चाहता, अर्श छूना  मगर   लोग  बौने, यहाँ   ऊँची   दीवार   है  ..............................................  अनसुनी  है इधर दर्दो ग़म, आम  के  खास लोगों की ,दिल्ली में दरबार  है  ...............................................  बिक रहे हैं ग़ज़ल, गीत, नगमें तभी  बज़म में आज बदनाम फ़नकार  है  ...............................................   उड़ रहे  तेज झोंके  से पत्थर  इधर   इसलिए  सहमा ,शीशे का किरदार है  ...............................................   बंदिशें हैं कलम, कैमरों   पर    तभी   झूठ मुंसिफ  ,यहाँ सच गुनहगार   है  ................................................   शिवशंकर तिवारी   । छत्तीसगढ़। ..............................................

डॉ. विनय कुमार श्रीवास्तव

भादौं छठ या ललही छठ पूजा का महत्व भाद्रपद मास की छठी तिथि को हर वर्ष भादौ छठ या ललही छठ का त्यौहार मनाया जाता है। उत्तर भारत में इसे हलषष्ठी,हरछठ या ललही छठ आदि के नाम से भी जाना जाता है। महिलाएं पुत्र प्राप्ति एवं उनकी सलामती के लिए इस कठिन व्रत का पालन कर छठ मैया का पूजन करती हैं। उनका मानना है इस व्रत को रखने से पुत्र सदा स्वस्थ एवं दीर्घायु रहते हैं। ललही छठ को हर साल श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के पहले मनाया जाता है।  एक अन्य मान्यता के अनुसार इस दिन भगवान श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम का जन्म हुआ था, इसलिए इसे बलराम जयंती के रूप में भी मनाते हैं। इस बार ललही छठ का पर्व 28 अगस्त शनिवार को मनाया जाएगा। कैसे करें पूजा?? इस व्रत में महुआ के दातून से दांत साफ किया जाता है। दिन में अथवा शाम के समय इस पूजा के लिए आँगन में एक छोटा सा सगरा (तालाब) व हरछठ मिट्टी की वेदी बनाई जाती है। हरछठ में झरबेरी, कुश और पलाश(ढाक) की डालियां एक साथ बांधी जाती हैं और उनको इस मिट्टी की वेदी में गाड़ दिया जाता है। इसके बाद वहां पर चौक बनाया जाता है। तत्पश्चात हरछठ को वहीं पर लगा देते हैं। सबसे पहले कच्चे जनेऊ का स

नंदिनी लहेजा

शीर्षक-पिंजरे में कैद पंछी की व्यथा  क्या सोच रहा है मित्र मेरे,हमें देख पिंजरे में , पंखों को अपने समेटे हुए। हां व्यथित है हम ,उदास बड़े ,चाहते उड़ना फिर से , खुले गगन में पंख अपने फैराते हुए। हां ! मित्र ना भाता पिंजरा मुझे,चाहे दाना पानी सब है यहाँ। ईश्वर ने बनाया पंछी हमें, उड़ना हैं हक़ हमारा यहाँ वहां। पिंजरा तो पिंजरा होता है, चाहे लौह का हो या सोने का। मिल जाता कैदखाना हमें, जीवन बन जाता बंदी सा। माना पहले ना समझता था, तू आम इंसान, पिंजरे में रहने की पीड़ा पर महामारी के दानव से बचने को,था स्वयं को तूने कैद किया सब सुख तेरे घर के भीतर थे ,प्राणो को बचने था तू बंद। पर फिर भी मचलता था मन तेरा, क्योंकि आदी था तू रहने को स्वछंद। फिर क्यों करता हम पंछियों को, तू कैद पिंजरे में, केवल अपने आनंद के लिए।  है तड़प रहा ह्रदय हम दोनों का, स्वछंद नभ में उड़ने के लिए। हम सब तो, मानव! ईश्वर के, बनाये सजीव प्राणी है। मैं तो ना देता, कभी कष्ट तुझे,पर मुझे तो बन शिकार, गोली भी तेरी खानी है। नंदिनी लहेजा  रायपुर(छत्तीसगढ़)

रामकेश एम. यादव

यू. एन. ओ.! यू.एन.ओ. तेरा  गम  बँटाने  कौन आएगा? तू अपनी ढपली- राग कब  तक  बजाएगा। अब कहाँ बचे  सच से  टकराने  वाले लोग, झूठ   के  साये   से  बता  कौन   बचाएगा? छोड़ दे  सारी  दुनिया  यदि  अपनी  पकड़, बेचारा  अफगानिस्तान  तो वो मर जाएगा। बह रही है  नदी  देखो रोज  वहाँ  खून  की, फ़र्जअदाएगी की झूठी बस कसम खाएगा। खून  सस्ता  हुआ और  पानी महंगा  हुआ, गुत्थियां जहां की आखिर कब सुलझाएगा? भड़काई  आग  किसने, ये  सबको  है पता, ऐसे जख्मों को कब  तलक तू  सहलाएगा? उठाते -उठाते  लाश  लोग  थक  जा रहे  हैं, कारगर कदम न उठाया तो तू थक जाएगा। कितने दिन तक  मातम  मनाएगी ये दुनिया, मुझको लगता है कि मातम भी थक जाएगा। कौन  तलवे   रोज  चाटे  उन  वहशियों  की, एक दिन वहशी ही  वहशी को खा  जाएगा। बचाया न यू. एन.ओ.अगर तू खुद जहां को, तू   अपनी   ही  परछाई   से   डर   जाएगा। अपने दिल के  आईने  में  झाँक यू. एन. ओ. रोने के  लिए  खुद  तू  भी  न आँसू  पाएगा। शांति-  सेना आखिर  तुम्हारी कर क्या रही? तेरे  शौर्य  का  वो  परचम  कब  लहराएगा? रामकेश एम. यादव (कवि, साहित्यकार), मुंबई

निशा अतुल्य

चौपाई देख राम धीरज मन धारा। कौशल्या का राज दुलारा।। श्याम बदन करधनियाँ बाजे। चंदन भाल मनोहर साजे।। ठुमक ठुमक स्नेही पग राखे। पग में रुनझुन पायल बांधे।। धर्म-कर्म में जब मन साधा। मन में रही न कोई बाधा।। बन मित भाषी वाणी साधो। तन सुन्दर,अतुलित बल बाँधो।। धीरज से सब काज बनाओ। ध्यान धरो मन अति सुख पाओ। राम नाम का बड़ा सहारा। भजे मन दिन रात अपारा  ।। सिया राम सब काज सवारें। भव से मुझको पार उतारें।। निशा अतुल्य

अतिवीर जैन पराग

दुनिया के मुँह पर चांटा  काबुल में आईएस ने किया आत्मघाती हमला ।  सेकंडों मरे सेकंडों घायल गिनती करी ना जारी॥  तालिबानी राज में आतंक बना कोढ़ में खाज भारी।  तालिबानी या आतंकी सब एक थाली के चट्टे बट्टे ॥  ना पाक से पा रहे खुराक कसने होगे इसके पठ्ठे ॥  पाक बना हैं आज सपेरा सब आतंकी साँपो का ।  देश में हैं कुछ सपेरे तालिबानी आतंकी साँपो के ।  देश में टुकड़े पदक लोटाओ गेन्गो में छाया सन्नाटा ॥  सूंघ गया सांप इनको मानो आतंकी साँपो ने काटा ॥  आतंकियों ने मारा मानवता दुनिया के मुँह पर चांटा ॥  इंजिनियर अतिवीर जैन " पराग " मेरठ , उत्तर प्रदेश ,भारत  9456966722

सुधीर श्रीवास्तव

लेख जीवन बनाएं : सीखें सिखाएं ***********************      ये हमारा सौभाग्य और ईश्वर की अनुकंपा ही है कि हमें मानव जीवन मिला, तो ऐसे में हम सभी की ये जिम्मेदारी है कि हम इस चार दिन के लिए नश्वर शरीर का घमंड न करें बल्कि इस जीवन की सार्थकता सिद्ध करने का प्रयास करें, इसके लिए हमें अधिक कुछ नहीं करना है,बल्कि सिर्फ़ अपना ही नहीं औरों के भी जीवन को बनाने का प्रयास करना चाहिए है।    अब तक के विभिन्न आयामों से गुजरते हुए जो कुछ भी हमनें सीखा, अनुभव किया, उसे अपने छोटों, कम जानकार और कम अनुभवी लोगों में बाँटना है, उन्हें सिखाना है, दिशा देना है। साथ ही हमें अपने से अनुभवी, ज्ञानी और वरिष्ठों से ग्रहण भी करना है। इस सतत प्रक्रिया को विकसित करना भी है।     लेना और देना यह स्वाभाविक किंतु अनिवार्य प्रक्रिया है,सही मायनों में इसके बिना भला जीवन कहाँ चल सकता है।अतः न ही सिर्फ देना सीखिए बल्कि संकोच और अहम छोड़कर लेना भी सीखिए।  जीवन को बनाना है तो सीखने सिखाने की मनोवृत्ति का विकास , नये आयाम तक ले जाने का प्रयास कीजिये और जीवन की सार्थकता सिद्ध करने की लगातार कोशिश कीजिए।     जो भी आपके पास है उस

कालिका प्रसाद सेमवाल

*माँ कलुषित विचार कभी न आये* ★★★★★★★★★★★★ माँ   शारदे वाणी में मिठास   दे, माँ  हमारी  लेखनी में  धार दे। धमाँ भावों   में ऊंची  उडान दे, मां मुख से  निकले मधुर वचन। कलुषित  विचार कभी न आये, माँ  हम सब की हित की बात करे। बैर भाव न हो किसी जन से, हम सभी को तुम यह ज्ञान दो। जीवन में सब का नित उल्लास रहे, माँ  हम सभी को यह वरदान दो। जन -जन की वाणी निर्मल हो, हर मुख से  अमृत धार  बहे। हे माँ वीणावादिनी  हमें वरदान दो, हर दिन मां तेरा गुणगान करता रहूँ। ★★★★★★★★★★ कालिका प्रसाद सेमवाल मानस सदन अपर बाजार रुद्रप्रयाग उत्तराखंड

छत्र छाजेड़ फक्कड़

सुप्रभात संग आज की पंक्तियाँ :- रंगों  से  रंग  निकलते  हैं ******************** छत्र छाजेड़ “फक्कड़” रंगों से रंग निकलते हैं फिर जीने के अर्थ बदलते हैं सातों रंग समाये इंद्र धनुष में पर जीवन कब सतरंगी होता है ज्यों ज्यों मिले बढ़े और लालसा पर लालच में वो सब खोता है काम,क्रोध,मान सभी तो इस तृष्णा से पनपते हैं..... क्या नहीं मिला प्रकृति से हमें जीवन फिर भी उदास लगता है बदलें नज़रिया जीने का तो फिर जीवन यही बिंदास लगता है सुख दुख दो छोर इक डोर के अंतर कि किधर से पकड़ते हैं..... खुल जाये यदि गाँठ तो मोती माला के बिखर जाया करते हैं घुल जाये ईर्ष्या मन में तो परिवार बिखर जाया करते हैं ख़ामोशी से उठता शक का धुँआ फिर भ्रम में ही भ्रम पलते हैं..... गरजे बादल आवेश के तो आँधियाँ विनाश की चलती हैं तमस घटा घनघोर दर्प की झट जीने की राह बदलती है अपनों से होते दूर अपने ही फिर ग़ैरों से रिश्ते पनपते हैं...... शीतल कोमल निर्मल भावों से शांति जीवन में विचरती है मंज़िल जो मिल जाये परम की जीवन शैली और निखरती है धर्म फिर चाहे हो कोई सा बातें सभी तो एक सी करते हैं... रंगों से रंग निकलते हैं....

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

सोलहवाँ-1       *सोलहवाँ अध्याय*(गीता-सार) दैवी-असुरी सम्पति जे जन। उनहिं क अबहिं बताउब लच्छन।।       सुनु हे अर्जुन,कह भगवाना।        चित-मन महँ रखि मोर धियाना।। योगइ ग्यान ब्यवस्थित जे जन। रहँ रत भजन सच्चिदानंदघन।।       सुचि हिय इंद्री -दमनय- दाना।        पठन व पाठन बेद-गियाना।। करहिं तपस्या पालन धर्मा। सहत कष्ट तन अरु निज कर्मा।।      क्रोध व हिंसा,लोभ बिहीना।      कर्तापन- अभिमानइ हीना।। चित चंचलता,चेष्टा-भावा। निंदा-भावा सदा अभावा।।      सदा सत्य,पर प्रिय रह बचना।      अस जन-चरित जाय नहिं बरना।। धीरज-तेज-छिमा,चित-सुद्धी। सत्रुन्ह सँग रह मित्रय बुद्धी।।       नहिं अभिमान पुज्यता-भावा।        दैवी सम्पति जनहिं सुभावा।। बचन कठोर,क्रोध,अग्याना। असुर सम्पदा जनहिं निसाना।।       मद-घमंड-पाखंडय लच्छन।       असुर सम्पदा जन नहिं सज्जन।। दैव सम्पदा प्राप्त असोका। अर्जुन, करउ न तुम्ह कछु सोका।। दोहा-मुक्ति-प्राप्ति के हेतुहीं,दैव सम्पदा होय।         असुर -सम्पदा -प्राप्त जन,बंधन-मोह न खोय।।                       डॉ0 हरि नाथ मिश्र                        9919446372     क्रमशः........

डॉ० विमलेश अवस्थी

 घनाक्षरी 1 भाषा वाद का विवाद, प्रान्तवाद,क्षेत्र वाद, जातिवाद,वर्गवाद, मूल से मिटाइए i ******************** दुःख दैन्य रहे दूर, शौर्य शक्ति भरपूर शत्रुसैन्य का गुरूर, गर्तमे मिलाइए i ******************** हित संग हो विवेक एक राष्द्र मंत्र एक, सिर्फ रहे एक टेक खूब दोहराइए । ******************** दीन दलितों का त्राण, उचित पंथ निर्माण, वन्दे मातरम् गान, ठौर ठौर गाइए ***डॉ० विमलेश अवस्थी Title: घनाक्षरी राम वन्दना* ******************** आर्य राम को नमन, पुण्य धाम को नमन, मेघ श्याम को नमन, बार बार वन्दना । धर्म के धुरीण राम , कुशल प्रवीण राम, नित्य ही नवीन राम, बार बार अर्चना i दीन रखवारे राम, सन्त जन प्यारे राम, धनुवाण धारे राम, सद कर्म साधना i सर्वकला सीखे राम, भावना से दीखे राम, मीठे और तीखे राम, शारदूल गर्जना रचनाकार डॉ० विमलेश अवस्थी

अर्चना सिंह

पर्यावरण ईश्वर का वरदान यह धरती मां,  बहती इसी पर निर्मल पावन गंगा मां  हिमालय की गोद है पिता सा संबल,  एसी सुंदर धरती का दमन निरंतर मत पूछो ।। शाम की ओ नर्म धूप सुबह कि वह खुली किरण कभी चंचल शोख़ हवा कभी महकी पवन , फूलों के शुवास से महका तन मन  फिर झंझावातो का ऐसा बवंडर मत पूछो।। हमने अपनी प्यारी धरती को स्वयं ही रौंदा,  स्वयं ही बर्बाद किया अपना घरौंदा,  स्वयं ही लूट ली धरती की अस्मिता करके सौदा,  कभी सजती थी रचाती थी स्वयंवर मत पूछो।।तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है,  तुम्हारे आंकड़े झूठे बातें किताबी हैं , तन्हा तन्हा होंगी शहरों की शामें भी,  किसने भोका धरती में खंजर मत पूछो।। अमन का हाल-चाल मत पूछो,  आज नाजुक सवाल मत पूछो , लम्हा लम्हा जहर में डूबा है,  कैसे सवरेंगा पर्यावरण का मंजर मत पूछो।।                                        अर्चना सिंह                                      महाराजगंज

नूतन लाल साहू

मित्रता का धर्म धन दौलत,छोटा बड़ा नही देखती मन में अगर मित्रता की भाव हो कमतर या गरीब ना समझना श्री कृष्ण सुदामा की मित्रता को याद करो। याद रहें हमको बस सदा समानता की भाव हो जिसनें हमें ढांढस बंधाया बुरें वक्त में आंसू पोंछे हो ऐसे मित्र को कभी न भूलना यही तो मित्रता का धर्म है। धैर्य बंधाये उनके उर में यदि दुखों का पहाड़ टूट पड़े कुछ भी संदेह मत करना मन में अगर मित्रता की भाव हो हंसने के क्षण मिलकर हंस लें रोने के क्षण मिलकर रो लें यही तो मित्रता का धर्म है। हो जाय न पथ में रात कहीं मंजिल भी तो पास नही है लुक छिप करके मित्रता निभाने वाले दुखों से कौन बच सका है वाणी का मधुमय स्वर हो यही तो मित्रता का धर्म है। महत्वहीनता का अहसास कराने वाला प्रदर्शन कभी न करना प्यारें मित्रता तो धन दौलत, छोटा बड़ा नही देखती मन में मित्रता की भाव हो श्री कृष्ण सुदामा की मित्रता सा भाव हो यही तो मित्रता का धर्म है। नूतन लाल साहू

मार्कण्डेय त्रिपाठी

आहत उपवन है बाह्य शत्रुओं की तो छोड़ो , घर में भी अगणित दुश्मन हैं । इनको कैसे हम समझाएं , मन कलुषित ,आहत उपवन है ।। भारत में रहकर भी ये सब , दुश्मन सम बातें करते हैं । कितना जहर भरा है मन में , ईश्वर से भी ना डरते हैं ।। अपनी बेतुकी बातों से , ये मन को आहत कर देते । भार रूप ये हैं भारत में , फिर भी नाव हमारी खेते ।। ये सब पार्टी के नेता हैं , देश के नेता कम ही दिखते । जोड़, तोड़ सरकारें बनतीं , लोकतंत्र के मूल्य हैं बिकते ।। न्याय व्यवस्था की कमजोरी , इनको सदा छुड़ा देती है । भारत माता आहत होती , फिर भी स्नेह जुड़ा लेती है ।। व्यथित हृदय दिन, रात मौन रख , यह सब कुछ सहता रहता है । अपने से अब नहीं , आज सच , अपनों से ही डर लगता है ।। जाति, पंथ जनगणना की अब , देखो आहट पड़े सुनाई । पशु, पक्षी से तुलना होती , धन्य कुटिलता इनकी भाई ।। कृषि प्रधान देश भारत अब , कुर्सी प्रधान हमें दिखता है । सारे तिकड़म इसी लिए हैं , इसी हेतु नेता चिखता है ।। राजनीति व्यवसाय हो गई , त्याग, समर्पण भाव लुप्त है । ईमानदार जन गिने चुने हैं , जनहितकारी चाव सुप्त है ।। देश बड़ा होता है सबसे , देशभक्ति सर्वोच्च धर्म

व्यंजना आनंद मिथ्या

विधा -  घनाक्षरी        🪔 *मोहन*🪔           भीतर मोहन बैठा , दिल को तो वो ही  पैठा ,   उनकी सुंदर छवि  , सुरत निहारिए । बंसी  धुन में मैं डोलूँ  , राज वहीं  सारे  खोलूँ  ,         संभालते हमें सदा , उनको पुकारिए । माया फैली  चारों ओर , वो देते जीवन भोर ,  बाहर भटकता क्यूँ,  हिय  में बसाइए । आँखों में ही तेरा नूर , मत जा हृद से दूर , तू  ही मेरी धड़कन  , मत  तड़पाइए । तेरे पैरों  की मैं धूल ,  तेरा प्यारा मैं हूँ  फूल , करुणा चाहत की है  , उसे बरसाइए । *********🌹********* * व्यंजना आनंद  " मिथ्या "*✍🏻

रामनाथ साहू ननकी

कुसुमित कुण्डलिनी  ---- 27/08/2021                    ------ जलकर ----- जलकर भी अब क्या मिला , केवल गहन तनाव । आज नहीं तो कल करें , मुझसे भी दुर्भाव ।। मुझसे भी दुर्भाव , खत्म होता हूँ गलकर । रहता कहाँ वजूद , जिया  है जो भी जलकर ।। जलकर दीपक सोचता , देता बहुत प्रकाश । मेरा जीवन श्रेष्ठ है , होता नहीं निराश ।। होता नहीं निराश ,  नहीं जलता हूँ  छलकर । जीवन से संतुष्ट , हमेशा हूँ मैं जलकर ।। जलकर लंका  के महल , ध्वस्त हुए  विस्तार । एक भूल लंकेश के , उजड़ गया संसार ।। उजड़ गया संसार , जगत जननी को हरकर । दिए आत्म श्री राम , दम्भ मद अर्पित जलकर ।। जलकर भी हम जी रहे ,  नहीं मिले आराम । हर कोई है खोदता , राख बिके क्या दाम ।। राख बिके क्या दाम , कमाये पैसे छलकर । लुप्त आज अस्तित्व , गये है जो भी जलकर ।।                    -------- रामनाथ साहू " ननकी "                               मुरलीडीह ( छ. ग. ) ●◆■★●◆■★●◆■★●◆■★●◆■★●◆

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

गीत(समझ जिसने ली) *किताबों की भाषा* समझ जिसने ली है किताबों की भाषा, दरख़्तों की भाषा,परिंदों की भाषा। वही असली प्रेमी है क़ुदरत का मित्रों- उसे ज़िंदगी में न होती  निराशा।।                  समझ जिसने ली है........।। बहुत ही नरम दिल का होता वही है, नहीं भाव ईर्ष्या का रखता कभी है। बिना भ्रम समझता वो इंसाँ मुकम्मल- सरिता-समंदर-पहाड़ों की  भाषा।।               समझ जिसने ली है..........।। जैसा भी हो, वो है जीता ख़ुशी से, न शिकवा-शिकायत वो करता किसी से। ज़िंदगी को ख़ुदा की अमानत समझता- लिए दिल में रहता वो अनुराग-आशा।।                  समझ जिसने ली है............।। खेत-खलिहान,बागों-बगीचों में रहता, सदा नूर रब का अनूठा है  बसता। यही राज़ जिसने है समझा औ जाना- मुश्किलों से भी उसको न मिलती हताशा।।                समझ जिसने ली है...........।। हरी घास पे पसरीं शबनम की बूँदें एहसास मख़मल का दें आँख मूँदे। रवि-रश्मियों में नहायी सुबह तो- होती प्रकृति की अनोखी परिभाषा।।              समझ जिसने ली है............।। हक़ मालिकाना है क़ुदरत का केवल, बसाना-गवाँना बस अपने ही संबल। गर हो गया क़ायदे क़ुदरत उलंघन- ज़िंदगी त

पुनीत प्रदीप ध्रुव

*********** *ग़ज़ल*********** *** तमन्ना तू दिल की यूँ जाया नही कर कहा किसने वादा निभाया नहीं कर कदम मंज़िलों की तरफ चल सकें जो ये किसने कहा तू बढ़ाया नहीं कर बग़ावत करे आदमी मुल्क़ से जो उसे कोशिशें कर बचाया नहीं कर जो बर्बादियों की तरफ जा रहे हों कदम सोच ले तू उठाया नहीं कर नहीं दौर ख़तरों से यूँ खेलने का कभी इस तरह आजमाया नहीं कर ज़रूरत जहाँ पर न हो हर कहीं यूँ यही ठान ले ग़ुल खिलाया नहीं कर ****** पुनीत प्रदीप ध्रुव भोपाली भोपाल मध्यप्रदेश, ****** *********** *ग़ज़ल*********** वज़्न-1222×4 मुनाफा देखकर यारी करेंगे ठान लेते हैं यतीमों को सगा अपना यकीनन मान लेते हैं किनारा उनसे कर लेते ग़ुमां पर जो रहें अक्सर जरा सी बात करते ही उन्हें पहचान लेते हैं हमारी ज़िल्लतों में भी रहें हम बादशाही में नहीं झुकते किसी का भी नहीं एहसान लेते हैं अमीरों में बहुत से ऐब मक्कारी लहू में जो दिखाते हैं ग़ुमां जिसको यूँ कमतर जान लेते हैं उन्हें तो चाहिए रिश्वत जिन्हें है भूख ज़र की यूँ बरक्कत हो न हो रिश्वत मगर नादान लेते हैं कई बहशी दरिन्दों को जो सम़झाइस अगर देंगे वो एवज़ में करें बलवा यूँ सीना तान ले

विजय कल्याणी तिवारी

आघात -------------------------- निज कर्मों के फेर मे सहा बहुत आघात भटक रहा अँधियार मे देखा नही प्रभात। गुणा भाग नहि काम के बढ़ता केवल पीर बढ़ती जाती मूढ़ता मूरख हुआ अधीर। छोड़ गया निज धर्म को तनिक नही मन क्षोभ ज्यों ज्यों आगे जा रहा बढता जाता लोभ। वृत्ति असुर सी हो रही सोचे बस निज हेत अंतस मे बासा करे इक कुरूप सा प्रेत। धर्म कर्म से प्रेत का नाते दारी शून्य पाप बली बढ़ता गया पड़ा व्याधि मे पुण्य। विजय कल्याणी तिवारी बिलासपुर छ.ग.

पुनीत प्रदीप ध्रुव

*******काल के कपाल पर******* *** भारतीयता की गंध प्रसरित हो सुगंध,  ठानिए कि मात्र भारतीय कहलाएंगे. काल के कपाल पर इतिहास लिखेंगे करेंगे संहार दुश्मनों को दहलाएंगे त्राहिमाम की पुकार मचे चहुँ ओर ही रक्त की धार से उन्हें हम नहलाएंगे हिमगिरि में लहराएंगे तिरंगा शान से विश्व गुरु विश्व के विजेता कहलाएंगे एक क्रांति गीत एक सुर उचार कर चलें देश हित के वास्ते जिएंगे मर जाएंगे परशुराम महाराणा प्रताप वंशजों में हम हैं शौर्यवान उत्सर्ग कर जाएंगे क्रांति का बिगुल बजा दुश्मनों पर दांव ले करेंगे संहार खौफ़ उन पर भर जाएंगे आह्वान काल का तान बक्ष ठोंक कर दिगदिगंत जब चलें शत्रु डर जाएंगे पुनीत प्रदीप ध्रुव भोपाली भोपाल मध्यप्रदेश, *******

संजय जैन बीना

*समय निकल जायेगा* विधा : कविता दिल से दिल मिलाकर देखो। जिंदगी की हकीकत जानकर देखो। अपना तुपना करना भूल जाओगें। अंत में एक ही पेड़ नीचे आओगें। तब अपने आपको पहचान पाओगें।। क्योंकि छोड़कर नसवार शरीर, एक दिन सब को जान हैं। जो भी कमाया धामाया  सब यही छोड़ जाना हैं। फिर भी दौड़ता रहता है तू यहाँ से वहाँ संसार में।  जिस माया के चक्कर में वो तेरे साथ नहीं जायेगी।।  न खाता है न पीता है, और न चैन से जीता है। खुद तो परेशान रहता है और घर वाले को भी..। इसलिए संजय कहता है कि कर ले कुछ अच्छे कर्म। जिन्हें तेरे साथ अंत में जाना है।। घुटन की जिंदगी जीने से तो, अच्छा है आदि खा के जीओ। एक साथ हिल मिलकर अपने परिवार में रहो। जो भाग्य में लिखा है तेरे तुझे मेहनत से मिल जाएगा। पर ज्यादा की लालच में पड़कर, खुशी वाला समय निकल जायेगा।। जय जिनेंद्र देव  संजय जैन "बीना" मुम्बई

सत्य प्रकाश शर्मा सत्य

पाँच दोहे जल जीवन है कुआँ, बावरी, ताल  हम, देते  यदि  खुदवाय। पशु,पक्षी,जन की दुआ,जब-जब प्यास बुझाय॥ जगह-जगह प्याऊ लगे,बुहत बड़ा सत्कर्म। परहित हम करते रहें,"सत्य"सनातन धर्म ॥ हम अपने व्यवहार से,दें न किसी को ठेस। नित बरसे हरि- हर कृपा,रहे न कोई क्लेश॥ जल जीवन है सब कहें,करें खूब उपयोग। व्यर्थ  नही  बर्बाद हो, ऐसा  करें   प्रयोग॥ पानी  रूप  अनेक हैं, अलग- अलग हैं  नाम। आँख,नाक,सरि,सिंधु,तन,कूप ताल हरि धाम॥ सत्य प्रकाश शर्मा "सत्य " निवासी-पुरदिल नगर ( हाथरस ) मो०8273950927

नंदिनी लहेजा

विषय-त्यौहार त्यौहारों का देश है भारत , त्यौहार है भारत की शान। एकता और भाईचारा लाते, विश्व में बढ़ाते भारत का मान। होली रंगो को बिखेरतीहै, समानता का सन्देश ये देती है। रंग जाओ प्रेम के रंगो से,जाती धर्म से परे, सबको एक सा करती है। दिवाली पर्व है दीपों का, कहता ना तो घबरा अमावस के अंधियारे से। जला दीपों को, कर जग को रोशन,विश्राम तो पा तनावों से। जब मानते ईद हम भारत में, है लगता इक अलग नज़ारा है। हिन्दू मुस्लिम का भेद नहीं,यहाँ रहता भाईचारा हैं। गुरुपर्व मानते है हम जब, श्रद्धा से मस्तक झुक जाता। हो गुरुद्वारा, चर्च,मंदिर या मस्जिद, सबको सज़दा करने का मन करता माना विकसित नहीं, विकासशील है, हमारा भारत और हम सब। पर फिर भी जग में अलग पहचान है भूल जाते संघर्ष,दुःख,परेशानियां,और मनाते हर्षोल्लास से तीज-त्यौहार हमें मनचाहे पकवान जो खाने है नंदिनी लहेजा रायपुर(छत्तीसगढ़) स्वरचित मौलिक

आनन्द पाण्डेय

कविता अपनी हर हरकत से जितो, हर किसी के प्यार को।  हर्ष का सावन करो और,छेड़ दो युं बहार को। हर घड़ी मुस्कान हो, हर चेहरा खुशनुमा रहे।  हर अदाओं से तुम अपने, जीत लो संसार को।। बांट दो खुशियों की दौलत,फिर भी मालामाल हो। त्याग और बलिदान से, जीवन की एक मिसाल हो।  व्रिक्ष बनकर रास्तों में, छांव बाटो खुश करो।  नदी जल सीतल बनो,व्यक्तित्व सिन्धु विशाल हो।। कर्म का रथ रूक न जाए, हांकते रहना सदा।  जो बने ईमानदारी से, वो करना तुम अदा। हक रखो इन्सानियत का, कर भला तो हो भला। पर हितों की हित करो, यह कर्ज तुझपर है लदा।।। Kavi anand Pandey Sonebhadra up

शिवशंकर तिवारी

,,,,,,,,,,,,,रूह मेरी तलब,,,,,,,,,,,,  ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,  मैं धरा, देखिये वो गगन चाहता  रूह मेरी तलब, वो बदन चाहता  .........................  जिद पे दोनों अड़े, कैसी हो ज़िन्दगी  मैं हकीकत, मगर वो सपन  चाहता   ................... फूल,काँटे,खुशी,ग़म भरी राह में  मैं तबस्सुम ,मगर वो रुदन चाहता  ......................... है तमन्ना, तलब हर किसी की अलग  कोई सहरा ,तो कोई चमन चाहता  ..................... चाँदनी रात में,जाने क्यूँ मेरा मन  सिर्फ चाहे वही, जो सजन चाहता   ...................... साथ मेरे चले, हमसफर बनके वो  इस ज़माने में जो, बस अमन चाहता  ....................  जी रहा बारूदों की तपिश में मगर  इक दीवाना ज़िगर में जलन चाहता   .........................   शिवशंकर तिवारी। छत्तीसगढ़। .......................................

रामकेश एम.यादव

जिंदगी! जिंदगी   है    तो   मुस्कुराना    चाहिए, जिन्दा  हो  तो   नजर  आना  चाहिए। हाथ  पर  हाथ  रख  कर   बैठे  हैं  जो, हथेली   कर्मों   से   सजाना    चाहिए। ख्वाब  रात   में   नहीं   दिन   में  देखो, आसमां  को  जमीं   पे  लाना  चाहिए। दुनियादारी      हमारी     यहाँ     ऐसी, क़ातिल  को सीने  से  लगाना  चाहिए। रात -दिन  चाहता  है  जब  वो  उसको, रुख  से  पर्दा उसे  भी उठाना  चाहिए। रूठने  का   हक़  तो  है  दोस्त  को भी, उसे   सच्चे   मन  से   मनाना   चाहिए। नहीं  झेल पाती ज़ब सितम मौसम का, दर- ओ - दीवार  को   सजाना चाहिए। कागज  की  कश्ती से  पार करो न नदी, लोगों  को   आईना   दिखाना   चाहिए। लुक छिपकर  जो  बहा  जाते  हैं  आँसू दिल  में  उन्हें  घोंसला  बनाना  चाहिए। खिली   है  धूप   यादों   के   जंगल   में, पिया  को   घर   लौट   आना   चाहिए। छलक जाता है  जाम उसकी आँखों से, पीनेवालों    को   वहाँ   जाना   चाहिए। गलतफहमी   में   बहा   रहे   जो  खून, ईश्वर    को   उनको    बुलाना   चाहिए। रामकेश एम.यादव (कवि,साहित्यकार),मुंबई

चंद्रप्रकाश गुप्त चंद्र

*शीर्षक - *कृष्ण का सनातन गीता सार*     (वर्तमान परिप्रेक्ष्य में) मैं सब में हूं सब मुझमें हैं,मैं ही अनादि अनंत हूं मैं कृष्ण हूं, प्रकृति सृष्टि का संचालक अनंत हूं तुम मात्र निमित्त हो,है सारा प्रबंधन मेरा ज्ञान चक्षु खोल कर देखो रूप विराट मेरा जन्म लिया तो जी ,जी भर कर क्यों नित्य मरे, घुट घुट कर आलस्य प्रमाद सब त्याग कर सदैव वीरों सा व्यवहार कर अटूट लक्ष्य का गाॅ॑डीव उठा कर कर्म श्रम शक्ति की प्रत्यंचा पर विवेक बुद्धि का शर रख कर संशय विस्मय का गगन पार कर जीवन का हर आशय पूरा कर भूत से किंचित कभी न डर वर्तमान को रखो संजो कर भविष्य सदा ही उज्जवल कर  पल पल जीवन में संघर्ष बड़ा है पग पग पर व्यवधान खड़ा है अवसादों का कोहरा चहुॅ॑ ओर पड़ा है तू भी सारे कंटक करने पार अड़ा है तू कर्म ही अपना अनूठा अभिनव शस्त्र वना समझ!फल भी हर कर्म का होता अभीष्ट वना कोशिश बार बार तुझे करना है सफलता के पहले कभी नहीं रुकना है गिरने के डर से यदि चले नहीं मरने के डर से लड़े नहीं जीवन का तय किया कोई लक्ष्य नहीं तो जीवन जीने का कोई अर्थ नहीं मैं ही तेरे जीवन की लौकिक अभिलाषा हूॅ॑ इसीलिए करता क्षण क्षण दूर निरा

मार्कण्डेय त्रिपाठी

जाग बटोही जाग प्रभू बुलाते हैं भक्तों को , भक्त न अपने से जाते । बड़ा स्नेहमय नाता है यह , समझ कभी ना वे पाते ।। रहती सब पर नजर प्रभू की , कुछ मंदिर तक जा मुड़ते । प्रभु की लीला है अति न्यारी , कुछ जन दूर पड़े जुड़ते ।। देख रहा ऊपर वाला सब , इतना मन में है विश्वास । उससे कुछ भी छिपा नहीं है , वह है दीन जनों की आस ।। उसे दिखावा नापसंद है , वह है भक्त हृदय का भाव । जो जग को सब कुछ देता है , उसे भला किस वस्तु की चाव ।। किसी रूप में आ सकता वह , हरदम रहना मित्र सचेत । सबसे प्रेम भाव से मिलना , जग सुख है मुट्ठी की रेत ।। कैसे पहचानोगे प्रभु को , पदवी रूप नहीं कोई साक्ष्य । कागज़ के प्रमाण सब फीके , बस चेहरे पर दैवी हास्य ।। भक्त हृदय ही जान सका है , भावपूर्ण प्रभु की मुस्कान । आत्म समर्पण भाव है जिसमें , करता सतत् ईश का गान ।। नवधा भक्ति को स्वीकार कर , भक्त करे निज जीवन धन्य । मन, कर्म, वचन एक होते हैं , जगता जनम, जनम का पून्य ।। यह दर्शन का गूढ़ विषय है , इसमें ज्ञान, भक्ति अनुराग । वाणी शक्ति विफल हो जाती , जाग बटोही , अब तो जाग ।। मार्कण्डेय त्रिपाठी ।

डॉ० विमलेश अवस्थी

*गीत डॉ० विमलेश* *अवस्थी* ******************** जो कहता हूँ,सच कहता हूँ। सच के सिवा न कुछ कहता हूँ i सम्प्रदायवादी नागों ने मन विक्षत कर डाला i शान्त धरित्री पर धधका दी,महानाश की ज्वाला । ज्वालाओं की इन लपटों में,मैं भी दहता हूँ । जो कहता हूँ,सच कहता हूँ i सच के सिवा न कुछ कहता हूँi वर्गवाद और जातिवाद का,ऐसा खेल हुआ । भाई चारा खत्म,लहू का रंग बेमेल हुआ। सर्पदंश और नागफनी के, घेरे में रहता हूँ i जो कहता हूँ,सच कहताहूँ। सच के सिवा,न कुछ कहता हूँ॥ राजनीति से जनसेवा की बातें दूर हुई i बेवश जनता,सबकुछ सहने को मज़बूर हुई i घृणा और हिंसा की सारी घातें सहता हूँ i जो कहता हूँ,सच कहता हूँ i सच के सिवा न कुछ कहता हूँi नेताओं के सारे भाषण, मिथ्या होते है i नेताओं के सब आश्वासन मिथ्या होते है i धारा की लहरों के संग में बेवश बहता हूँi जो कहता हूँ,सच कहता हूँ,। सच के सिवा न कुछ कहता हूँ। जिस दिन जनता का,क्रोधानल जग जाता है i उस दिन सत्ता का सिंहासन हित जाता है i जन मन हूँ,परिवर्तन का पथ गहता हूँi जो कहता हूँ,सच कहता हूँ i सच केसिवा न कुछ कहता हूँ' रचनाकार डॉ० विमलेश अवस्थी कवि एवम् वरिष्ठनागरिक

मधु शंखधर स्वतंत्र

स्वतंत्र की मधुमय कुण्डलिया               खजाना ------------------------------------- मित्र खजाना नेह का , बाँटे निशदिन प्यार। सदा कष्ट में साथ दे , खुशियों का आधार। खुशियों का आधार , सहज वह गले लगाए। अपनापन अति खास , बंध यह सबको भाए। कह स्वतंत्र यह बात ,  मित्रता नहीं भुलाना। ईश्वर का वरदान ,  लगे  है मित्र खजाना।। ज्ञान खजाना प्राप्त कर , मिथ्या मन का राज। सुखद सदा ही तृप्ति हो , भाव बसा लो आज। भाव बसा लो आज , पूर्ण यह मनुज बनाता। अन्तर्मन कर वास ,  श्रेष्ठता मूल बसाता। कह स्वतंत्र यह बात ,  लोभ को दूर भगाना। सच्चा मौलिक रूप ,  ईश सम ज्ञान खजाना।। बाँट खजाना  तुम बनो , दीन दुखी के पीर। सच्चे सुख अनुभूति से , बनता वही अमीर। बनता वही अमीर ,  प्रेम धन जीवन जाने। पर उपकारी भाव , सभी को अपना माने। कह स्वतंत्र यह बात , धरा को हमें सजाना। प्रेम भाव का फूल , सहेजो बाँट खजाना।। मधु शंखधर स्वतंत्र ,*स्वतंत्र की मधुमय कुण्डलिया*                *यात्रा* -------------------------------------- यात्रा जीवन की सुखद , पहुँचाए जो धाम। कर्म निरंतर भाव से , सफल मिले परिणाम। सफल मिले परिणाम ,

छत्र छाजेड़ फक्कड़

विषय पंक्ति:- नीर भरे बादल मेघा  गरजै  घणा ************** छत्र छाजेड़ “फक्कड़” नीर भरिया बादळिया मेघा गरजै घणाऽऽऽऽ..... आयो सावण सुरंगों मेघा गरजै घणा.... हिवड़ो पूछै कहो पिया थे आस्यो कणां.                          मेघा गरजै घणाऽऽ झिरमिर बूंदड़ल्यां भिजावै तनड़ो देह तपै अंगारा सीऽ तरसै मनड़ो            लाल गरारा            पळकै थांरा            करै  इसारा नैंणां म्हारै अै रड़कै घणाऽऽऽऽ....            मेघा गरजै घणा ऽऽऽ... तड़ तड़ाती देखो आभै बिजळयां पळकै धड़ धड़ाती म्हांरी देखो  छतियां   धड़कै                उमटी  है  घटा                बिखरी है छटा                उळझी है लटां  हिवड़े मांय अरमां फड़कै घणांऽऽ....                   मेघा गरजै घणांऽऽऽ... आली माटी री सोरम पून स्यूं के कहवै चांद हंसै,तारा मुळकै,रात यूं ढळज्यावै                  मनड़ै  री  बात                  कटै   नी   रात                   कीं  मांगै  गात सावणिये सपना म्हांरा भड़कै घणाऽऽ..                         मेघा गरजै घणाऽऽ.. नीर भरिया बादळा                        मेघा गरजै घणाऽऽऽ आयो सावण सुरंगों                     

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पंद्रहवाँ-2 क्रमशः...पंद्रहवाँ अध्याय (गीता-सार) जीवात्मा तजि पूर्ब सरीरा। मन-इंद्रिय सह प्रबिसै थीरा।।    जाइ पुनः अति नूतन देहा।    बायु-गंध इव बिनु संदेहा।। सेवन करै पुनः रस-भोगा। पाँचउ इंद्रि पाइ संजोगा।।     त्वचा-घ्राण-लोचन अरु रसना।     कर्ण समेत बिषय-रस चखना।। ग्यान रूप लोचन जन ग्यानी। समुझहिं तत्त्व, न जन अग्यानी।।       सुचि हिय जोगी आत्म प्रयासा।        जानि क तत्त्व रखहिं बिस्वासा।। अन्तःकरण सुद्धि नहिं जाको। अस मूरख नहिं जानै वाको।।      सूर्य-चन्द्रमा-अगनी-तेजा।      बिनु मम तेज रहहिं निस्तेजा।। प्रबिसि अवनि मैं भूतन्ह धारक। रस स्वरूप ससि अमरित बाहक।।      करहुँ पुष्ट औषधि जे जग रहँ।      सब तरु-पर्ण-पुष्प-फल जे अहँ।। हमहिं प्राणि-बपु स्थित अगनी। बैस्वानर बनि अनल भष्मिनी।।      प्राण-अपान युक्त अन चारी।      सतत पचावउँ बल संचारी।। प्राणिन्ह उरहिं मैं अंतर्यामी। स्मृति-ग्यान-अपोहन नामी।।      केंद्र अध्ययन जानन जोगू।      कर्त्ता मैं बेदान्तइ भोगू ।। दोहा-सुनु अर्जुन तुम्ह ई जगत,छड़भंगुर-नसवान।         इक आत्मा इक बपु बसहि,दुइ प्राणिन्ह अस जान।।                            ड

कालिका प्रसाद सेमवाल

*शुभ कल्याणी गौ माता* ********************* सदाचार का पाठ पढ़ायें, सबको गौ पालन सिखलायें,  सब गौ माता की सेवा करके, गौ  माता का महात्म्य बताये, अपना जीवन धन्य बनायें, हम सब गौ ग्राम बनायें। गौ माता की कृपा दृष्टि से ही, सुखी हो जायेगें सब नर नारी, गौ माता की अनुकम्पा से ही, दूर हो जायेगी विपदाये सारी सबको नव जीवन दिलवायें, हम  सब  गौ  ग्राम   बनायें। अर्चन , वन्दन,  नित परिक्रमा, गौ माता की हमको करनी है, करके तेजो वलय हम बढ़ायें, चरण धूलि का तिलक लगाकर,  सकल मनोरथ  पूर्ण करायें, हम सब  गौ  ग्राम   बनायें। घर -घर दूध, दही की नदी बहायें , वैभवशाली, धीर वीर बनके, खुशियां  चारों  ओर   लाये, वैदिक शुभ सन्देश  सुनाये, नयी क्रान्ति देश  में  लायें, हम सब गौ  ग्राम  बनायें। गाँव गाँव में विचरण करके , पावन मंगल गीत   सुनाये, शुभ कल्याणी गौ माता की, महिमा जन-जन तक पहुचाये, राष्ट्र माता के पावन पद पर,  अपनी गौ माता को दिलवायें। सबसे  गौ मात  सेवा करवाये, भारत माँ को हराभरा बनायें, देश की सुख समृद्धि के लिये, हम सब  गौ  ग्राम  बनायें, सब  में  गौ भक्ति  जगायें,  गौ माता को राष्ट्र माता  बनायें, ****

महातम मिश्र गौतम

 कुंडलिया.....जय माँ शारदा! कुंडलिया" चहक रही है वह धरा, जिसपर नहीं शकून सत्ता का संधान कर, बहा रही है खून बहा रही है खून, प्रसून जहाँ फुलता था सुंदर छटा बिखेर, सूर्य प्रतिदिन उगता था 'गौतम' ले ले गंध, चमेली महक रही कुदरत की सौगात, मयूरी चहक रही।। महातम मिश्र 'गौतम' गोरखपुरी

डॉ० विमलेश अवस्थी

*1️⃣कृपा* जगह जगह पर भटक कर,आया तेरे द्वार i गण नायक करिवर वदन, करिए कृपा उदार । 2️⃣  *विषय* भोग से दूर रह, पा लूँ तेरी भक्ति। विध्न हरण जी ! दीजिए मुझको ऐसी शक्ति।  *3️⃣लेखन*  लेखन मेरा तेज हो, शब्द अर्थ गति भाव i पाठक श्रोता के हृदय छोड़े आशु प्रभाव  *4️⃣उत्तम*  उत्तमकविता रच सकूँ दे दो यह वरदान i विघ्नविनाशक गणपते ! जय हेरम्ब महान i 5️⃣ *विचार*  सोच,आचरण ठीक हो, उन्नतरहें विचार । धन,पद पाकर भी कभी आवे नहीं विकार i  *रचनाकार*   * डॉ० विमलेश अवस्थी *

रामनाथ साहू ननकी

कुसुमित कुण्डलिनी  ----                    ------ खिड़की ----- खिड़की खोल दिमाग की , आने दे सद्ज्ञान । तेरे अंदर है छुपा , कोई सृजक महान ।। कोई सृजक महान , लगा मत उसको झिड़की । आने को बेताब , खोल के रखना खिड़की ।। खिड़की से वह झाँकता , दूर खड़ा आनंद । चलकर जब आगे गया , दिखा काल का फंद ।। दिखा काल का फंद , सुनाये किसको दिल की । मृगतृष्णा का खेल , रचाये बैरन खिड़की ।। खिड़की को अनिवार्य रख , जब हो घर निर्माण । आने को अंदर हवा , जीवन पथ के त्राण ।। जीवन पथ के त्राण , देख मत जाये बिचकी । सुख शोभा अनुरूप , रखो घर पर दो खिड़की ।। खिड़की टूटा ही मिला , पर्दे गायब  आज ।  इनसे क्या है दुश्मनी , कैसा गुंडाराज ।। कैसा गुंडाराज , जेब में छाई कड़की । डरते हैं हम यार , चुरा ले जाये खिड़की ।।                    -------- रामनाथ साहू " ननकी "                               मुरलीडीह ( छ. ग. ) कुसुमित कुण्डलिनी ---- 25/08/2021                    ------ सोकर ----- सोकर उठते देर से , गया समय सब खास । ब्रह्म जागरण की घड़ी , छूटा भोर उजास ।। छूटा भोर उजास , नहीं पल आये खोकर । यूँ ही जाये बीत , दिवस सब खोता सोकर

नूतन लाल साहू

याद आता है मेरा बचपन जब मेरा चंचल बचपन था महा निर्दयी मेरा मन था कलियों को फूल खिलनें नही देता छेद छेद कर हार बनाता याद आता है मेरा बचपन। मै दंड से भय नही खाता चालाकी कर मैं इतराता सोच इसे, आंहे भरता हूं क्रूर कार्य कैसे करता था याद आता है मेरा बचपन। दिन को होली रात दिवाली प्यार बरसता था मुझ पर कुछ क्षण दुश्मनी कुछ क्षण में दोस्ती याद आता है मेरा बचपन। वो दिन बीता वो रात गई चिंता की कोई बात नही था भूला सभी उल्लास को मैने कितना अकेला आज हूं मैं याद आता है मेरा बचपन। बचपन में थे सुख दिन भी बचपन में थे दुःख के दिन भी अब उर की पीड़ा से रोकर त्राहि त्राहि कर उठता है जीवन याद आता है मेरा बचपन। सौ समस्यायें खड़ी है अब हल नही है पास मेरे बचपना में था ऐसा जादू कर लेता था बस में, लोगों को याद आता है मेरा बचपन। नूतन लाल साहू जीवन महासंग्राम है अपने से ही उलझों अपने से ही सुलझों यहां दिमाकी कसरत है। समय स्वयं ही नही बदलता सबको बदलता जाता है पथ पर टटोलकर चलना है धैर्य से सुन,मेरी बात को अपनी बोली की मिठास से छु सकता है,आसमान को अपने से ही उलझों अपने से ही सुलझाें यहां दिमाकी कसरत है। मेहनत से कमाते

विजय कल्याणी तिवारी

प्रखर संकल्प ------------------------------- है प्रखर संकल्प तो याचना से मुक्त हो जोड़ कर उर्जा अगम साहसी संयुक्त हो। भय भ्रमित होने से जीवन नर्क हो जाए इस बहस मे क्या पता कुछ तर्क हो जाए। भागने से कब हुआ हासिल किसे बोलो गांठ जितने हैं लगो उसको जरा खोलो। गांठ जब रिसने लगे तो दर्द होना है अवहेलना से हर सबब को सर्द होना है। साथ जो रहता हमेशा यार वह संकल्प है मान ले वह शेष जीवन हर कदम पर अल्प है। यह प्रखरता ही तुम्हें शीर्ष तक पहुंचाएगा। नासमझ हैं जो जगत उनको धरा ले आएगा। विजय कल्याणी तिवारी बिलासपुर छ.ग. ,,तुम तजि जाउं मै कहाँ,, -------------------------------- तुम तजि जाउं मै कहाँ कौन रखे है मान मै मूरख निज धर्म से अब तक था अनजान। सब जागे मै सो रहा मद मदाँध से चूर दुख का कारक खुद रहा तुमसे था जब दूर। आँखन आँसू नित बहे जान सका नहि दोष जब आया तेरे शरण सुना श्रवण जय घोष। चिंता नहि दुख व्याधि की हँस कर सहूँ विषाद सहज वृत्ति से मिट गया अंतस भरा प्रमाद। महिमा तेरे नाम की अब जाना सिय राम सहज शाँत जीवन तुम्ही तुम्ही चीर विश्राम। अब जाना निज धर्म को चाहूँ करूँ निबाह तुम दीपक बनकर जले सदा भगति की

पुनीत प्रदीप ध्रुव

*********** *ग़ज़ल*********** वज़्न-1222×4 मुनाफा देखकर यारी करेंगे ठान लेते हैं यतीमों को सगा अपना यकीनन मान लेते हैं किनारा उनसे कर लेते ग़ुमां पर जो रहें अक्सर जरा सी बात करते ही उन्हें पहचान लेते हैं हमारी ज़िल्लतों में भी रहें हम बादशाही में नहीं झुकते किसी का भी नहीं एहसान लेते हैं अमीरों में बहुत से ऐब मक्कारी लहू में जो दिखाते हैं ग़ुमां जिसको यूँ कमतर जान लेते हैं उन्हें तो चाहिए रिश्वत जिन्हें है भूख ज़र की यूँ बरक्कत हो न हो रिश्वत मगर नादान लेते हैं कई बहशी दरिन्दों को जो सम़झाइस अगर देंगे वो एवज़ में करें बलवा यूँ सीना तान लेते हैं ****** पुनीत प्रदीप ध्रुव भोपाली भोपाल मध्यप्रदेश,26/08/2021 *******

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*गीत*(16/14) बनना नहीं निराशावादी, कभी विफलता पाने से। सुखमय होगा जीवन केवल, ऐसा भाव भगाने से।। हो जाओ संकल्पित मानव, रजनी शुभकर करने को। सुखद ज्योति ले दिनकर निकले, तमस-विषाद निगलने को। साहस-धैर्य धरोहर बनते- केवल सोच जगाने से।।      ऐसा भाव भगाने से।। नकारात्मक सोच है दुश्मन, मन में इसे न पलने दो। पल-पल चैन छीनती रहती, इसे न साथी बनने दो। चाँद-सितारे दिखेंगे सुंदर- आशा-दीप जलाने से।।      ऐसा भाव भगाने से।। उचित न लगता डर से डरना, यह कायरता सूचक है। पुरुष न,उसको क्लीब कहे जग, यह विवेक उन्मूलक है। अर्जुन होता सफल युद्ध में- मन-अवसाद मिटाने से।।     ऐसा भाव भगाने से।। रोग-भोग-संयोग जगत है, इसको हमें समझना है। यही सत्यता जीवन की है। यह संतों का कहना है। सब कुछ लगता शुभ-शुभ मित्रों- शुभ विचार उर लाने से।।    बनना नहीं निराशावादी,     कभी विफलता पाने से।    सुखमय होगा जीवन केवल-    ऐसा भाव भगाने से।।              © डॉ0हरि नाथ मिश्र                  9919446372 *पिया-मिलन* चली अकेली पिया मिलन को, एक सुंदरी आस लिए। गर्म रेत पर चलती जाती- प्रेम भरा विश्वास लिए।। बढ़ती जाए,किधर चले वो, शायद उसक

संजय जैन बीना

माँ में बड़ा हो गया विधा : कविता गोद में बैठा मेरा बेटा  कब पैरो पर खडा हो गया।  और एक दिन मुझसे बोला  मम्मी मैं आपसे बडा हो गया।।  मैनें कहा बेटा भले ही खूबसूरत  गलतफहमी में जकडें रहना।  पर मेरा हाथ पकड़े रहना  और माँ का बेटा बने रहना।  जिस दिन साथ छूट जाएगा,  तेरा रंगीन सपना भी टूट जाएगा। तब बेटा तुझे रिश्तों का महत्व  खुद ही समझ आयेगा।।  यह दुनियां वास्तव में  इतनी भी हसीन नहीं।  जितना तू मेरे बेटे  इसे समझता है।  बेटे देख तेरे पांव तले  अभी जो आधार है।  वो तेरे लिए मैंने ही  बनाकर तुझे दिया है।।  मैं तो माँ हूँ बेटा तेरी  जो बहुत खुश हो जाऊंगी।  जिस दिन तू वास्तव में  मुझसे बड़ा हो जाएगा।  जब तू खुदके द्वारा आधार बनाकर उस पर खड़ा होगा।  उस दिन सबसे पहले बेटे मैं तेरी आरती उतारुँगी।।  आज तेरी सफलता पर बेटे तेरी माँ तुझे शुभ आशीष और  मंगल शुभ कामनाएं देती हूँ। जैसे मैंने सोचता था बेटे तू उससे बढ़कर ही निकला।  मैं धन्य हो गई बेटे  आज तेरी माँ बनकर।  इसी तरह से बेटा तुम  अच्छा पति और भाई का  फर्ज भी निभाना।  और अपनी माँ का  नाम रोशन करना।।  जय जिनेंद्र देव संजय जैन "बीना" मुं

व्यंजना आनंद मिथ्या

।।*आत्म -- चिंतन*।।     ****************     *सात्विक क्रोध*     ************ समय समय सब शोभता ,   प्रेम क्रोध सह त्याग । हर पल तुझमे देखना ,    बन जाता यह आग।। खाक करें पल में यहाँ ,    शुभ फल भी सब जाय । पतन हुआ फिर धर्म का ,      दंड वही है पाय ।।  भीष्म पितामह ने यहाँ,     नहीं किया था पाप । एक पाप से था मिला ,     शैया वाणों शाप ।।  क्रोध समय पर हो अगर ,      होता नही अनिष्ट। बचता वंश अधर्म से ,       सारे रहते शिष्ट ।।   पाया पुण्य जटायु था ,      एक कर्म से देख । क्रोध समय पर वह किया ,     बदली उसकी रेख । मिली गोद श्री राम की ,     जो उनके भगवान । श्रद्धा से सब पूजते ,       देते सारे मान । अतः क्रोध ऐसा करो ,   पुण्य सदा बन जाय । मर्यादा रक्षा बने ,   दूजे हित हो पाय ।। वहीं क्रोध है पाप बने ,    दिए धर्म को चोट । अहित हुआ हो जब यहाँ ,      होती तेरी खोट।।  आभूषण है जीव का ,     शांति यहाँ है नाम । अविहित पाप खिलाफ,     करना तुम बस काम ।। सात्विक क्रोधी जीव का ,     करता है उद्धार । वैसे नर का ही सदा ,     प्रभु लेते हैं भार ।। *********&******** *व्यंजना आनंद "

स्नेहलता पाण्डेय स्नेह

दर्द ए दिल सबको दिखाई देती है मेरी, गुलज़ार महफ़िल। रातों  की तन्हाइयों का कोई मंज़र नहीं दिखता। चेहरे की हंसी दिखती,आंखों की खुशी दिखती। इनमें   सूखे अबसार का, समन्दर नहीं दिखता। सुनते हैं लोग  ख़ूब मेरी, सुरों में पिरोए  नग़मे। नग़मो में  छिपे दर्द का क्यों,बवंडर नहीं दिखता। लिखती रहती हूं मैं क्यूं कर,इतनी दर्द भरी ग़ज़लें।  किसी को जब लफ़्ज़ों का कोई मतलब नहीं दिखता।  स्नेहलता पाण्डेय "स्नेह" नईदिल्ली