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सितंबर, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

भास्कर सिंह माणिक

देश की समस्त बेटियों को समर्पित                  बेटियां                 ---------- दुनियां में सबसे महान होती है बेटियां। धैर्य त्याग की पहचान होती है बेटियां।। ताकते है  बेटे  शिखर चढ़ती हैं बेटियां। नूतन पृष्ठ  इतिहास के गढ़ती हैं बेटियां। तूफान का भी रुख बदल देती हैं प्यार से। माटी की आन शान पर लड़ती हैं बेटियां। महाशक्ति का  वरदान होती हैं बेटियां। धैर्य त्याग की पहचान होती है बेटियां।। देवों  को  अपनी  गोद खिलाती है बेटियां। वापस  प्राण  यमराज से  लाती हैं बेटियां। वो  रूठे  स्वजन  मना  लेती हैं मनुहार से। पल भर का नेह पा खिलखिलाती हैं बेटियां। शाख जैसी कोमल सरस होती हैं बेटियां। धैर्य  त्याग  की  पहचान होती है बेटियां।। रण में  विजय  पताका फहराती हैं बेटियां।  तम का  ग्रास कर प्रकाश फैलाती बेटियां। तोड़कर बाधाओं को अपना फर्ज निभाती। हंस क्रोध का भी सिंधु पी जाती हैं बेटियां। माणिक सरिता समान तरल होती हैं बेटियां। धैर्य  त्याग  की  पहचान  होती है बेटियां।।              -------------- मैं घोषणा करता हूं कि यह रचना मौलिक स्वरचित है।                   भास्कर सिंह माणिक,कोंच

नरेन्द्र श्रीवास्तव

हाइकु विश्व नदी दिवस पर      नदी  नदी चली है अमृत जल ले के सर्व हिताय।      * नदी चली है गुनगुनाते गीत प्यास, पानी के।       * साहसी नदी चट्टानों को चीरती बहती रही।     * नदी में आ के खो गईं वर्षा बूँदें प्यार अथाह।       * सुंदर दृश्य नदी के तट पर प्यासा न कोई।       * नदी का भाग्य कल पानी से भरी आज आँसू से।       * सूखी नदी में धूप आकर करे स्वेद तर्पण।      * गहरी नदी सूख के रेत हुई मिट्टी पलीद।      * नरेन्द्र श्रीवास्तव

रामकेश एम.यादव

हौसलों से राहें सजानी पड़ेगी! दीया  रोशनी  की  जलानी  पड़ेगी। हौसलों  से  राहें   सजानी   पड़ेगी, ऐसा  न  सोचो, सजाये  कोई  राहें, बनेंगी   सहारा  ये   तेरी  ही  बाहें। आँसू  से  होती न  हल ये  समस्या, हिम्मत जहां  को  दिखानी  पड़ेगी। हौसलों  से   राहें   सजानी  पड़ेगी! दीया   रोशनी   की जलानी  पड़ेगी। परिचय तेरा है कुछ करके दिखाओ, गगन सीढ़ियाँ जरा चढ़ के दिखाओ। मंगल -   चाँद  नहीं  दूर   है    तुमसे, बस्ती    वहाँ    पे   बसानी   प ड़ेगी। हौसलों  से     राहें  सजानी   पड़ेगी! दीया   रोशनी  की  जलानी  पड़ेगी। बनों  ऐसा  फूल  मुरझाना  न  आए, खुशबू  तुम्हारी  जहां तक वो  जाए। अधरों पे सोया जो चिंता का बादल, उदासी   की  रेखा  मिटानी पड़ेगी। हौसलों  से   राहें   सजानी  पड़ेगी! दीया  रोशनी  की  जलानी  पड़ेगी। आँसू बहे न  कहीं गंगा -जमन का, सुन्दर हो वेश मेरे अपने चमन का। सृजन की पवन फिर बहानी पड़ेगी, हौसलों  से   राहें   सजानी  पड़ेगी! दीया  रोशनी  की  जलानी  पड़ेगी। रामकेश एम.यादव (कवि,साहित्यकार),मुंबई

छत्र छाजेड़ फक्कड़

नई  सुबह  का  नया  फसाना ================ छत्र छाजेड़ “फक्कड़” हरी घास पर मोती बिखरे बन पुष्प नवकलियां निखरे भँवरों को मिल गया बहाना छेड़ रहे फिर नया  तराना नई सुबह का नया फसाना..... रवि रश्मियों ने रंग भरे नये अक्स आभा में उतरे सूरज चढे तो तेज बढ़े मस्त पवन का आना जाना नई सुबह का नया तराना..... ढलती शाम में लंबी छाया मन थका,शिथिल है काया पश्चिम में अस्ताचल सिंदूरी यूँ ही चले रूठना मनाना नई सुबह का नया फसाना...... प्रबुद्ध पटल को फक्कड़ का नमन

कालिका प्रसाद सेमवाल

*गौ माता ममता का भंडार* **********************  गौ माता सनातन धर्म का  गौरव  है , धर्म ग्रंथों में है गौ माता की महिमा, गौ माता के दूध से श्रृंगी ऋषि ने, खीर बनाई थी और हुआ  राम जन्म। गौ माता युगों- युगों से पूजित है,  मानव का  है इससे दिव्य नाता , इसके दूध से   बनती है औषधि, जो रोगों से मुक्ति दिलाती है। मां तो हमें बचपन में ही दूध देती है, प्यार से हमारा माथा चूम लेती है, गाय तो सारी उम्र अमृत देती है, इसी लिए सभी  की चहेती है। गौ माता तो ममता का भंडार है, जिस भी घर  में गौ रहती है, पूर्वज भी  प्रसन्न हो जाते है, गौ माता में तैतीस कोटि देवता रहते। ******************* कालिका प्रसाद सेमवाल मानस सदन अपर बाजार रूद्रप्रयाग उत्तराखंड

परमानंद निषाद प्रिय

🌹  *बेटी एक एहसास* 🌹 पढ़ लिख के बेटी बनेगी नम्बर वन, माता-पिता के जग में नाम करेगी रोशन। बेटी के पास हर सवालों का जवाब होती बेटी असंभव को संभव कर दिखाती।1। बेटी से महक उठे जीवन की बगीया, सुंदर फूल है आँगन को महकाती। बेटी एक खूबसूरत एहसास है। बेटी पर माँ लक्ष्मी का वास है।2। बेटी भ्रूण हत्या अब बंद करो। बेटी को अब स्वीकार करो। बेटी लायेगी बड़े-बड़े खिताब। बेटी को शिक्षा से दूर न करो।3। बेटी चंचल और मासूम सी होती, बेटी ससुराल को स्वर्ग बना देती। बेटी मन की उल्लास गंगा सी पावन है, परी बेटी "प्रिय" का पहचान है।4। * परमानंद निषाद"प्रिय "*

महातम मिश्र गौतम

"कुंडलिया" झूम रहें हैं खेत सब, हरित धान ऋतु संग। लहर रहीं हैं बालियाँ, लेकर स्वर्णिम रंग। लेकर स्वर्णिम रंग, अंग प्रिय ढंग निराला। कुदरत की सौगात, मधुर रस मादक प्याला। 'गौतम' हर्ष सिवान, किसान किला चूम रहे। कर्म दिलाए मान, चौखट जिया झूम रहे।। महातम मिश्र 'गौतम' गोरखपुरी

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*नीति-वचन*      नीति-वचन-2 मंदिर-मस्जिद अरु गुरुद्वारा। धरम नहीं गिरजाघर सारा।।     चंदन-तिलक धरम नहिं भाषा।     नाहीं धरम अंध- बिस्वासा ।। तीरथ करउ भले बहु जाई। तदपि न सुचिता मन महँ आई।।    पर उपकार सरिस नहिं धरमा।    धरम न हो बस पूजन-करमा।। जीव-जंतु-मानव प्रति प्रेमा। जे जन करहिं अहर्निसि नेमा।।    तिनहिं क जानउ परम सुधर्मी।    सेवा-प्रेमी होंय सुकर्मी ।। जाति-बरन नहिं भेद-बिभेदा। जग-कल्यान कहहिं सभ बेदा।।     छुआछूत नहिं धरम-सुभाऊ।     निरबल-अबल न कबहुँ सताऊ।। सत्य-अहिंसा-धरम-कुदारी। खोदि क जीवन-खेत-कियारी।।     जे जन सात्विक फसल उगावैं।      अंतकाल ते प्रभु-पद पावहिं।  दोहा-धन्य-धन्य अस लोग जग,धर्म जासु उपकार।         कृपा-पात्र प्रभु कै बनैं,जायँ सिंधु भव-पार।।                   डॉ0 हरि नाथ मिश्र                    9919446372

श्रीकांत त्रिवेदी

"बेटी दिवस" बेटी के लिए कुछ शब्द.. 🙋💁🙆🙅🙎🙋 मेरी "लाडली", शादमां बन गई है। गुलशन की वो, बागबां बन गई है। रही खेलती जो, कभी गोद में ही , अब वो मेरी, निगहबां बन गई है।। कभी थी जो मेरे, गगन का सितारा, अब खुद वही ,आसमां बन गई है।। कभी नन्हे कदमों से, जो थी ठुमकती, अब वो उफ़क पर, निशां बन गई है।। कभी मेरे आंगन में,जो टिमटिमाई, वही आज इक,कहकशां बन गई है।। रही जो मेरी, जिंदगी का सवेरा , अंधेरों में वो ही,शमा बन गई है।। यूं ही हमेशा रहे, खिलखिलाती, रब की अता की दुआ बन गई है।।             श्रीकांत त्रिवेदी लखनऊ

मधु शंखधर स्वतंत्र

*स्वतंत्र कि मधुमय कुंडलिया*               *धड़कन* ------------------------------------ धड़कन हिय की जब तलक , तब तक होते प्राण । जीवन का संकेत यह , श्वासें बनी प्रमाण ।। श्वासें बनी प्रमाण , सतत है जीवन जानों । जन्म- मृत्यु का भेद , मनुज इसको पहचानो । कह स्वतंत्र यह बात , करे आधारित जीवन ।  तन का है यह अंश , जिसे सब कहते धड़कन ।। धड़कन बढ़ती है तभी , जब हो पिय का साथ । आँखों से जब बात कर , पकड़ लिए पिय हाथ । पकड़ लिए पिय हाथ , बात तब धड़कन करती । धक - धक जैसै रेल , तेज यह आहें भरती । कह स्वतंत्र यह बात , प्रेम होता सच्चा धन । भावों का संसार , बसाए अन्तर धड़कन ।। धड़कन यदि थम जाय तो ,  समझो जीवन अंत । समय गति का भान ये , कहते हैं सब संत । कहते हैं सब संत , ध्यान दे इसे सहेजो । चिंता  शोक विकार , कभी इस तक मत भेजो । कह स्वतंत्र यह बात , करो मत ऐसे अनबन । पछताओगे बाद , रुके जब हिय की धड़कन ।। * मधु शंखधर 'स्वतंत्र * *प्रयागराज*

मार्कण्डेय त्रिपाठी

आज की राजनीति जो चाहो लिखवा लो मुझसे , राजनीति पर नहीं लिखूंगा । साम, दाम, दण्ड, भेद है इसमें , मैं बेकार , अयोग्य दिखूंगा ।। अवसरवादी सोच है इसकी , सत्ता इसकी भूख ,प्यास है । तिकड़म, मायाजाल बहुत है , नेताओं की हरी घास है ।। हालत देख,सिहर जाता मन , सब अपने पर कोई न अपना । हास्य, रुदन में भी कृत्रिमता , हर क्षण जगता, टुटता सपना ।। कब तक बची रहेगी कुर्सी , इसका कुछ भी नहीं भरोसा । टांग खिंचाई जमकर करते , जिनको हमने पाला ,पोसा ।। सच में यह काजल की कोठरी , इस हमाम में सब नंगे हैं । भीतर से है कठिन बिमारी , बाहर दिखें भले चंगे हैं ।। इसमें शिक्षा नहीं जरूरी , कोई भी नेता बन जाता । वक्ता चाहे जो बकता हो , फिर भी वही चूनकर आता ।। बहुतों को तो राष्ट्र गान और , राष्ट्र गीत भी नहीं पता है । राज्य, राजधानी तो छोड़ो , बोलो,किसकी यहां खता है ।। स्वाभिमान गिर जाता इसमें , चमचागिरी आज हावी है । पहले का अब गया जमाना , आज कुटिलता प्रभावी है ।। औरों के लिखे भाषण को , नेता बहुत बार पढ़ता है । बाहर, भीतर भेद बहुत है , कुटिल सीढ़ियां तब चढ़ता है ।। लोकतंत्र है देश हमारा , हम सब भारत के वासी हैं । राजनीति

विजय कल्याणी तिवारी

धारा का प्रवाह ----------------------- टूट रहा प्रवाह धारा का मन अब धीर धरे तो कैसे जिन नयनों से अश्रु बह रहे उनके पीर हरे तो कैसे । कभी नही इतना बेबस देखा मैने इंसानो को दोनों हाथ खोल कर लूटा देखा सब बेइमानों को तुम्ही बताओ करूंणा कर मुख आषीश झरे तो कैसे जिन नयनों से अश्रु बह रहे उनके पीर हरे तो कैसे। तुम पर गहन आस्था मेरी प्रतिफल शून्य रहा लेकिन तुम सम्मुख तो क्या चिंता नियमित नयन बहा लेकिन दाह देख स्वजनों का हरिहर हिय संतोष भरे तो कैसे जिन नयनों से अश्रू बह रहे उनके पीर हरे तो कैसे । विजय कल्याणी तिवारी बिलासपुर छ.ग.

गौरव शुक्ल

बेटी दिवस पर सभी को बहुत बहुत बधाई अपनी एक रचना के साथ -  बेटी जीवन को अर्थ दिया करती है, वीरान चमन,आबाद किया करती है। है जिम्मेदारी का अहसास जगाती, दुनियादारी का हमको सबक सिखाती। नीरसता में रस घोल दिया करती है, हमको खुशियों से तोल दिया करती है। बगिया में पुण्य प्रसून सदृश खिलती है, निर्जन मरुथल में नदिया सी मिलती है। भगवद्गीता जैसी पावनता धारे, निर्दोष बाइबिल सा चारित्र्य सँवारे। लगती कुरान की आयत सी उज्ज्वल है, जो गुरू ग्रन्थ साहिब की भाँति धवल है। गंगा की बूँद-बूँद जैसी सुपुनीता, सारल्य मूर्ति सा किंतु तेज में सीता। बेटी, जग को वरदान देवता का है, इसका आदर, सम्मान देवता का है। इसको सम्पूर्ण देश की पूँजी जानो, इसको सारे समाज का गौरव मानो। यह निखरे, बढ़े, फले, फूले, मुस्काये, निर्द्वन्द्व, निडर घूमे , आनंद लुटाये । सब मिल , इसकी रक्षा का धर्म निभाओ, हर एक दशा में यह दायित्व उठाओ।"                    - गौरव शुक्ल                     मन्योरा                     लखीमपुर खीरी

योगिता चौरसिया प्रेमा

सादर समीक्षार्थ प्रेमा के प्रेमिल सृजन __ 26/09/2021_ आज का छंद ---      ---  श्रग्विणी / लक्ष्मीधर /कामिनी मोहन --         द्वादशाक्षरावृत्ति  गण संयोजन ---    रररर            212-212-212-212 आज माधो रखें प्रीत की भावना । ज्ञान दो मान दो सिद्ध हो कामना ।। भाव में आज हो प्रीत की साधना । आत्म विद्या  लिए दिव्य आराधना ।।1!! नित्य  चेष्टा रखें बंदगी सर्वदा । दिव्य प्रार्थी बने साधिका जो सदा ।। दूरदर्शी  भरो प्रेम को नाथ जी। जिंदगी शक्ति हो दीप सा साथ जी ।।2!! खोजती  योगिता आपकी  साधिका ।  बाट  है जोहती प्रीत में राधिका  ।। साजना याचना आज तो मानिए । मैं बनी  आपकी ये सदा जानिए  ।।3!! --- योगिता चौरसिया "प्रेमा" -------मंडला म.प्र.

नूतन लाल साहू

भरम वह कौन रतन अनमोल मिला जिसको समझा था सोना पर जिसको समझा था आंसू वह मोती निकला यह कैसा भरम है मेरी कुछ देर कहीं पर बैठकर सोच सकूं सच्चाई। जीवन की आपाधापी में कितना ही भूलूं, भटकूं या भरमाऊं मैं जहां पर खड़ा था कल उस थल पर आज नही हूं चाहे नभ ओलें बरसाएं या मां धरती उगले सोले मैं इतना क्यों बदल गया इस बात को मुझसे पूछा जाता है समय की चलती अनवरत चक्की में क्या बतलाऊं मैं यह कैसा भरम है मेरी कुछ देर कहीं पर बैठकर सोच सकूं सच्चाई। जिस दिन जागी मेरी चेतना मैं खड़ा था दुनिया के मेलें में आ गया कहां,क्या करूं यहां कुछ देर रहा, हक्का बक्का भौचक्का सा और भीतर भी भावों का उपापोह मचा रहा वह कौन रतन अनमोल मिला जिसको समझा था सोना पर जिसको समझा था आंसू वह मोती निकला यह कैसा भरम है मेरी कुछ देर कहीं पर बैठकर सोच सकूं सच्चाई। नूतन लाल साहू

व्यंजना आनंद मिथ्या

*घनाक्षरी ---* * *सृजन शब्द- --*            *राधिका*            *********                राधिका है  कृष्ण प्यारी  ,     साधिका सबसे  न्यारी   ,        समर्पण भाव सदा ,            कृष्ण की ही चाह है । पनघट के तीरे आना ,    राधा को तुमको पाना  ,         निभाने खातिर प्रीति  ,              भक्तिन की राह है ।            मिट्टी में  खुशबू तेरी  ,     चहुँओर तुम्हें हेरी ,        सुना मुझे बंसी धुन ,            सदियों की दाह है ।                 सुंदर सुखद प्यार ,    मेरा भी ये मनुहार  ,       बनाना समुद्र मुझे  ,          निकलेगा वाह है । *************************** * व्यंजना आनंद " मिथ्या " *

ब्रजेन्द्र मिश्रा ज्ञासु

"बेटी" हर घर का श्रृंगार है बेटी। ईश्वर का उपकार है बेटी। घर में रहती रौनक इससे। जीवन का वो सार है बेटी। दो दो घरों का बनती सेतू। खुशियों का संसार है बेटी। अगर दीपक  हैं बेटे घर के। तो बाती का आकार है बेटी। बोझ न समझो यारों इनको। पूरा जिनसे परिवार है बेटी। जीवन से लेकर के मृत्यु तक। परम स्नेह की बौछार है बेटी। है रिश्तों की गर्माहट जिससे। वो जलता हुआ अंगार है बेटी। अगर आये परिवार पर संकट। तो  बन जाती तलवार है बेटी। लुटानी पड़े जो जान वतन पे। तो करती  नहीं इंकार है बेटी। आधी शक्ति समाहित इसमें। दुनिया  का  आधार है बेटी। इसीलिए तो सदा सम्मान का। ज्ञासु रखती अधिकार है बेटी। ब्रजेन्द्र मिश्रा 'ज्ञासु' निवास बंगलूरू, कर्नाटक मूल निवास सिवनी मध्यप्रदेश मोबाइल 7349284609

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

बेटियाँ        *भारत की बेटियाँ* भारत का नाम रौशन,करतीं हैं बेटियाँ, नित-नित नवीन शोधन,करतीं हैं बेटियाँ। यद्यपि ये कोमलांगी,होतीं हैं बेटियाँ, कर लेतीं श्रम कठिन,फिर भी ये बेटियाँ।। जल में हों,चाहे नभ में,होवें धरा पे वे, नारी-प्रभा को शोभन,करतीं हैं बेटियाँ।। वतन की आन-बान थीं,पहले भी बेटियाँ, झंडे का आज रोहण, करतीं हैं बेटियाँ।। k कर्तव्य शासकीय,या हो प्रशासकीय, सियासती सुयोजन,करतीं हैं बेटियाँ।। होतीं अक्षुण्ण कोष ये,असीम शक्ति का, कुरीतियों का रोधन,करतीं हैं बेटियाँ।। साहस अदम्य इनमें,रहता विवेक है, संघर्ष का ही भोजन,करतीं हैं बेटियाँ।। घर में रहें या बाहर,चाहे विदेश में, शर्मो-हया का लोचन,रहतीं हैं बेटियाँ।। जीवित हैं मूर्ति त्याग की,अपनी ये बेटियाँ, नहीं कभी प्रलोभन,करतीं हैं बेटियाँ ।।       रिक्शा चला भी लेतीं,भारत की बेटियाँ, परिवार का प्रबंधन,करतीं हैं बेटियाँ।।              © डॉ0हरि नाथ मिश्र                  9919446372

सुधीर श्रीवास्तव

मेरी बेटियां ********** जीने के बस यही बहाने ये मेरे अनमोल नगीने। इनकी खुशियों में सब कुछ है बेटे से न ये कम हैं, गौरव का अहसास कराती बेटी बेटे का भेद मिटाती उम्मीदों से आगे बढ़कर गर्व के पल ये हैं लातीं। बेटी बेटे का भेद न मुझको इन पर ही अभिमान है मुझको रहे सशंकित माँ कुछ इनकी पर तनिक नहीं मुझको ग़म है। ये भी अपने भाग्य लिए हैं मेरा भाग्य वश मेरे लिए है पत्नी की चिंता जायज है हर बेटी की माँ डरती है। पर डर डर न जीना मुझको मंजिल इनकी देना मुझको, डर कर आखिर कितने दिन तक पिंजरे में कैद रख सकता इनको। बंधन मुक्त है मेरी बेटियां आगे ही बढ़ रही बेटियां नाम है इनका संस्कृति गरिमा मेरा अभिमान हैं मेरी बेटियां। ● सुधीर श्रीवास्तव        गोण्डा,उ.प्र.      8115285921 ©मौलिक, स्वरचित

संजय जैन बीना

*बेटी है तो खुशियाँ हैं* विधा : कविता नसीब वाले होते है  वो घर परिवार। जहाँ जन्म लेती  है बेटी। परिवारों की जान  होती है बेटी। घर की लक्ष्मी  होती है बेटी। सुसराल में सीता  दुर्गा होती है बेटी। दो कुलो की शान  होती है बेटी।। बेटी की मोहब्बत को  कभी आजमाना नहीं। वह फूल हैं उसे  कभी रुलाना नहीं। पिता का तो गुमान  होती हैं बेटी। जिन्दा होने की  पहचान होती है बेटी। उसकी आंखे कभी  नम न होने देना। उसकी जिन्दगी से कभी, खुशियां कम न होने देना।। उनगलि पकड़कर कल   जिसको चलाया था तुमने। फिर उसको ही डोली  में बिठाया था तुमने। बहुत छोटा सा सफ़र  होता हैं बेटी के साथ। बहुत कम वक्त्त के लिए   वह होती हमारे पास। असीम दुलार पाने की   हकदार है बेटी। समझो तुम ईश्वर का   आशिर्वाद है बेटी।। आज बेटी दिवस की सभी को बहुत बहुत शुभ कामनाएं और बधाई।  जय जिनेन्द्र देव  संजय जैन "बीना" मुम्बई 26/09/2021 *कुछ तो सच्चाई है* विधा : कविता  ज़माने में आये हो तो  जीने की कला को सीखो।  अगर दुश्मनों से खतरा है तो अपनो पे भी नजर रखना।।  दुख के दस्तावेज़ हो  या सुख की वसीयत।  ध्यान से देखोगें तो नीचे  मिलेंगे स्वयं

ऊषा जैन

*मेरी बिटिया* मेरी बिटिया मेरी गुड़िया,  मेरे आँगन की वह चिड़िया।   कोयल सी उसकी मीठी बोलीं,  है जादू कि जैसे  वह पुड़िया।  मेरी आंखों का वह नूर हैं,  मेरे घर का वह गरूर हैं।  उसकी प्यारी प्यारी बातें,  जैसे गर्मी की हो बरसातें।  जब वह मेरी गोद में आई,  मैं माँ बन कर मुस्कुराई।  लगाके उसको अंक से अपनें,  खुशी से फूली मैं न समाई।  जब से वह बड़ीं हो गईं हैं,  मेरी तो पदवी ही बदल गईं हैं।  अब जैसे मैं उसकी बेटी हूंँ,   और वह मेरी माँ बन गईं हैं।  यह न करो माँ वह न करो,  माँ सेहत का अपनीं ध्यान करो,  जो बातें बचपन में मैं कहतीं थीं,  अब वे  सारी बातें मुझसे कहतीं हैं।  दिन-रात वो हमारें ही खातिर,  अक्सर परेशान सी रहतीं हैं।  लफ्जों से कुछ नहीं कहतीं ,  पर आँखों से चिंता झलकती हैं।  माँ, बाप की असली दौलत,  बेटियाँ ही कहलातीं हैं।  पुण्य उदय होता हैं उनका,  जब बेटी घर में आतीं हैं।  *मेरी कलम से*🖋 * ऊषा जैन कोलकाता*

प्रखर दीक्षित

लघुकथा *घर जमाई*     छैल बिहारी मिश्र जी बैठक में बैठे-बैठे किसी सोच विचार में निमग्न थे कि तभी मोबाइल सक्रिय हुआ, घंटी सुनते  ही फोन ओ के किया....... "हैलो कौन...? " मिश्र जी नमस्कार.... मैं आपका भावी समधी राघव राम दुबे " दूसरे सिरे से उत्तर मिला। औपचारिक बातचीत के बाद मुद्दे की बात राघव राम ने रखी---" भाईसाहब मेरी बेटी रीमा ने यहीं शहर में एक इंजीनियरिंग कालेज में जाब कर ली है ।आपके छोटे शहर में मेरी बेटी शेटल नहीं हो पाएगी और रही बात ससुराल जाने की तो महीने में एक दो दिन आती जाती रहेगी।" "आपने और रीमा ने सौरभ बेटे से बात की। यह तो सम्भव नहीं है।बेटे का दाम्पत्य जीवन कलह भरा हो जाएगा। आप सौरभ से बात कर लें" मिश्र जी ने भारी मन से बात पूरी की। छैल बिहारी ने सारी बात सौरभ को बताई। बेटा परेशान हो गया। रीमा को फोन मिलाया---" हैलो रीमा मैं यह शादी नही कर सकता। परोक्ष रुप से मुझे घर जमाई बनना स्वीकार नहीं। जरुरी नहीं प्रेम विवाह में परिणीत हो। दाम्पत्य जीवन शर्तो पर नहीं वरन् विश्वास पर आधारित होता है।" * प्रखर दीक्षित* *फर्रुखाबाद*

स्नेहलता पाण्डेय स्नेह

आप सभी को बेटी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं 🌹🌹🙏🙏 क्यूँ परेशान हो जाते हैं ? बेटी के माँ बाप, बेटी को यदि शाम को, घर आने में देर होने लगती है। माथे पर शिकन दिखती है, क्योंकि वह बेटी के माँ बाप हैं। मालूम है उन्हें समाज के कुछ, खतरनाक भेड़ियों के बारे में। दोमुहें चेहरे वालों शैतानों और, नृकृष्ट हैवानों के बारे में। जो घूम रहे हैं इधर उधर, सड़कों पर मंदिरों में गली मौहल्लों में, यहाँ तक कि घर की छतों पर भी। कहाँ रहे कहाँ जाये बेटी? चाचा,मामा,ताऊ,मौसा, जीजा,फूफा, या कोई अजनबी  इंसान, बचे किसकी किसकी कामुक नज़रों से। रिश्तों की दुहाई दे या अपने आबरू की, इन्हें परवाह नहीं स्त्री के सम्मान की। ये भी नहीं सोचते कि, इनकी, माँ, और बहन भी एक स्त्री है। अगर इनके साथ वैसा ही हो, जो ये एक  मासूम ,बेटी,बहन और, किसी की माँ के साथ करते हैं। केवल बेटी दिवस पर ही क्यों हम, बेटी के मान सम्मान की बात करते हैं? उसे हर वो अधिकार क्यों नहीं मिलता, जो इस समाज ने बेटों को दिया है? कर्तव्य का बोझ बेटों से ज्यादा, बेटियों के सिर पर क्यों पड़ा है? स्नेहलता पाण्डेय 'स्नेह' 26/8/21

सीमा मिश्रा बिन्दकी

आप सभी को बेटी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं 🙏 बिटिया पिता के गेह मे बहती रसों की धार है बिटिया, मातु के नेह के मोती का झिलमिल हार है बिटिया। चरण पड़ते ही आंगन गेह का है झूमने लगता, चंदा द्वार पर आकर कुहु संग कूकने लगता, दीपक खिलखिलाते रोशनी का सार है बिटिया। पिता के गेह मे बहती रसों की धार है बिटिया। चंदन की सुरभि लाई कि हंसती खेलती आई, शिव की जटाओं में हो गंग जैसे झूमती आई, भाई के हांथ में बंधता खुशी का तार है बिटिया। पिता के गेह मे बहती रसों की धार है बिटिया। पिता के मान को करने सबल धरती में है आई, मनुज की चेतना में मनुजता का रंग भर पाई, शिवा बनके हिमालय के गुणों का भार है बिटिया। पिता के गेह मे बहती रसों की धार है बिटिया। पिता के गेह मे बहती रसों की धार है बिटिया, मातु के नेह के मोती का झिलमिल हार है बिटिया। रचना - सीमा मिश्रा, बिन्दकी , फतेहपुर (उ० प्र०) स्वरचित व सर्वाधिकार सुरक्षित

नंदिनी लहेजा

बेटी बिटिया तू है गुलाब सी कोमल,कमल सी तू  है पावन रंग सुगंध से घर महकाती कोयल सी सुरीली तेरी गुंजन पर मेरी प्यारी बिटिया ,तू सुंदर भले  गुलाब सी साथ काँटों का भी तूने पाया है कमल की तरह पूजा तुझको  सभने पर संग कीचड़ का भी साया है तेरी कोयल जैसी मीठी गुंजन कभी रुंधन भी बन सकती है तेरे पावन श्वेत से बचपन मेँ कभी कालिख भी लग सकती  है मैं तेरी माँ हूँ  बस यही चाहूँ रब से न तुझे कभी काँटों की चुभन मिले,न कीचड़ से तू हो मैली सदा महके फूलों की तरह ,खुशियों से भरी रहे तेरी झोली तू वादा कर मुझसे बिटिया ,गर कभी  तुझे लगे दुःख से कांटे या फिर बुरी नज़र की कीचड़ ना' डरना न कुछ छुपाना मुझसे  बस बढ़ती रहना इनको रोंधकर नंदिनी लहेजा रायपुर (छत्तीसगढ़)

कालिका प्रसाद सेमवाल

****** *बेटियां ******              ******* परिवार की  रौनक   होती है बेटियां,  आँगन   की  शोभा   होती है! सौभाग्य की प्रतीक होती  बेटियां है, मधुर  मन की  आवाज होती है! अन्नपूर्णा का  स्वरूप  होती है, जीवन का सार  होती है बेटियां। ममता की खुशबू होती है बेटियां, वक्त आने पर चट्टान सी कठोर होती है! गंगा सी  पवित्र  होती  है बेटियां, दुर्जनों के दांत खट्टे कर देती है! देश की प्रगति में हाथ बंटाती बेटियां, पृथ्वी जैसी सहनशील  होती है बेटियां। बेटियां  के लक्ष्मी का रुप होती है, ईश्वर का अनुपम उपहार होती है! बाबुल    का   प्यार  होती  है बेटियां, परिवार  के लिये    खास  होती  है! चुटकी  भर    सिंदूर  के  लिये , अपना  जीवन अर्पित कर देती  बेटियां। दुख की बदली में  सूर्य बन जाती, ममता, माया,  दुलार  का रुप होती है! कभी दुर्गा ,चंडी  और कभी महाकाली,  बन   जाती  है   हमारी  बेटियां! अबला कहने वालों को मौका आने पर, आसमान के तारे भी दिखाती है बेटियां। त्याग    प्रतिमूर्ति     होती  बेटियां, धरती  सी   सहनशील   होती है! एक शरीर के  अनेक  रुप होते इनके, कोमल हृदय  की  होती  है बेटियां! जगदम्बा का 

डॉ. राम कुमार झा निकुंज

#विधा:  स्वैच्छिक (कविता)  #विषय: स्वैच्छिक #शीर्षकः बेटी है तो कल है शिक्षा का   आलोक   जगत    में,  फैले हर  घर    उजियार   समझ।  हर     सन्तति    बेटा  या     बेटी,  सब धनी दलित रोशनार   समझ।  शिक्षा     का   अधिकार   देश  में,  है    संविधान   अधिकार   समझ।  रूप  रंग  या   जाति  धर्म     बिन,  ज्ञान ज्योति सुलभ बहार   समझ।  सबको   शिक्षा     मिले   वतन  में,  तब चहुँओर प्रगति विकास समझ।  पढ़े     बेटियाँ   घर     घर   भारत,  तब   खिले   वतन मुस्कान समझ।  चहुँ ओर    प्रगति  सोपान     चढ़े,  नव कीर्ति    देश   उत्थान  समझ।  उन्मुक्त     उड़ानें    भरे   क्षितिज,   बेटियाँ  वंश    सम्मान     समझ।  ज्योति पुंज  विद्या धन   समाज में,  मानव    जीवन   सुखसार  समझ।  ज्ञान रश्मि  जन  सोच  बदल शुभ, नयी   राह   अभ्युत्थान      समझ।  शिक्षा     सुविधा  हो सब   घर  में,  निर्भेद     भाव     सरकार  समझ।  पा  पढ़े   लिखे   बेटी   उत्तम  पद,  तब  सबल   देश  आह्लाद  समझ।  सर्वशिक्षा   हो   सफल    राष्ट्र  में,  पढ़े   हर   बेटी    आधार   समझ।  शिक्षा   कारण    परिमाण  जगत,  समभाव   समाज  निर्माण सम

अमरनाथ सोनी अमर

गीत- स्वचछता!  स्वच्छता का गीत क्यों गाते नहीं!  स्वच्छ भागीदार क्यों बनते नहीं!!  अब  तुम्हे  आभाष  होना चाहिए!  गंदगी   नीजात  मिलनी  चाहिए!!  स्वच्छता का गीत........  रोग को  दमने  तरीका  स्वच्छता!  यहचिकित्सा अंग एक है पंथता!! स्वच्छता का गीत........  स्वच्छ का माहोलजबबन जायगा! सब बिमारी दूर वह भग जायगा!!  स्वच्छता का गीत.......  जाग जाओअबस्वयं तुम वासियो! स्वच्छता में मन लगाओ भाइयो!!  स्वचछता का गीत.......  सब -सुखी  हो  लोग  मेरे  देश के!  नहि  रहे  रोगी   हमारे  देश   में!!  स्वच्छता का गीत क्यों गाते नहीं!  स्वच्छ भागीदार क्यों बनते नहीं!!  अमरनाथ सोनी "अमर " 9302340662

छत्र छाजेड़ फक्कड़

पाछो जाणो ही पड़सी छत्र छाजेड़ “फक्कड़” अेक जुग बीतग्यो गांव गयो ही कोनी अबके गयो तो लाग्यो सागी हो ही कोनी न तो बो सुख हो न ही बो आणंद हो न ही बा तिरपती मिली घणी रामाण करी घणी खेछल़ खायी जणां चिंतन री सुई हिली अबै मैं ,मैं ही कठै रैयो दो दिनां रो पावणो फेर छोड गांव पाछो स्हैर गयो याद आवै बै लहरिया मंड्या धोरा कबडी खेलता छोरी खेतां खेतां रोही में घूमणो जाल़ चढ़  गूंदीया अर पीलिया खाणो दो पांवडा़ दरखत धरणो अब कठै म्हारै बस रैयो सोचूं  पाणी बैवे नल़कां में  कठै कुवो अर कुवे री सारण कठै पींपल़ रो गट्टो चिलम सारती गट्टे री चौपाल़ पणघट दोघड़ अर पिणहारी गांवती डावड़्यां कठै गोचर कठै धीणो अर बिलोणो कठै रोटी पर गोरो गुटगुटियो सो चूंटियो अर कठै कांदां सागै दही राबडी़ चौक चांदणी भादूडो़ कुण गावै कठै मंडे हींडा,कुण तीज्यां गावै कठै तीजां रा मेला़ मगरिया कठै खांड रो चपडो़ अर म्हैल मालि़या कुण काती न्हावै कातीसरे में काचर,बोर,मतीरा कुण मोरै अर सीट्टा खावै कुण माटी रा दिवला़ सजावै पण भींता जरूर जगमग करै जद बीजली़ रा लोटिया चसै कठै त्यूंहार री ठसक औपचारिक दियाली़ सूनी जावै फागणिये कुण कागै री चूंच मं

नूतन लाल साहू

सपनों का धुआं आतुर सा मनवा डोल रहा कुछ निरख रहा,कुछ खोज रहा बरसो की करते है चिंता सामान सजाकर यहां वहां जीवन कठोर निर्मम पथ है संघर्षों से पूरित है,जग का डगर अपना सब कुछ भूल गया रह गया सिर्फ,सपनो का धुआं। क्या मुझको आवश्यकता होगी दुखी बनाया,यही चाहत ने ढूंढ रहा था मैं मृगनयनी किस्मत में थी मृगछाला बरसो की करते है चिंता सामान सजाकर यहां वहां अपना सब कुछ भूल गया रह गया सिर्फ, सपनो का धुआं। निशदिन की घटना चक्रों से भूला मैं एक जमाना मन चंचलता के परवश है मैं विचर रहा हूं यहां वहां अपना सब कुछ भूल गया रह गया सिर्फ, सपनो का धुआं। मैं हूं बहती धार नदी की जिसका कोई छोर नही है पंक्षी के पंखों सी उड़कर देख लिया मंजिल की तो कोर नही है बरसो की करते है चिंता सामान सजाकर यहां वहां अपना सब कुछ भूल गया रह गया सिर्फ, सपनो का धुआं। नूतन लाल साहू

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*सुरभित आसव मधुरालय का*14 आसव राग-रागिनी-निर्झर, है प्रपात-जल-शुद्धिकरण। इसे छिड़क कर सज्जन-दुर्जन- सबने शुचिता पाई है।।        पीपल-पात सरिस मन डोले,        जब भी डोला कलुषित मन।        मधुरालय जा करो सफाई-        आसव-पान सफाई है।। हो हिय मुक्त सके वासना से, पुण्य-प्रताप-कपाट खुले। करता पावन आसव-निर्झर- पुनि शुचि पौध सिंचाई है।।      हिय-मन-वन में हो हरियाली,      खोट-सोच-तरु स्वस्थ रहे।      बढ़े निरंतर शुचिता मन में-       जिसमें रही खटाई है।। मन-तरुवर की विषमय डाली, पी पय आसव हरी बने। बने मिठास खटास तत्त्व भी- आसव दुग्ध-मलाई है।।       देव-धेनु के पय समान ही,       मधुरालय का आसव यह।       जितना चाहो पी लो जाकर-       कामधेनु सुखदाई है।। खग-मृग वन के जीव-जंतु सब, मुदित मना अति स्वस्थ रहें। जीवन-मरण-स्वतंत्र सोच ले- उनकी अरणि-रहाई है।।        मधुरालय भी मुक्ति-केंद्र इव,        करे मुदित संताप मिटा।       दैहिक-दैविक-भौतिक-बाधा-       इसने सदा भगाई है।। मधुरालय का दर्शन कहता, जीओ और जिलाओ। साथ-साथ मिल पीओ-खाओ- वर्ण-भेद लघुताई है।।      करो प्रकाशित अँधियारे को,      जिसका हृदय बसेरा थ

सुखमिला अग्रवाल भूमिजा

यह संजा गीत आजकल लुप्तप्राय हो चुके हैं।  श्राद्ध पक्ष में शाम को घर में दिवार पर गोबर से संजा बनातें हैं..  रंगों  व फूलों से सजातें हैं..  गीत गातें हैं..  *स्वरचित संजा गीत * काजल गजरा टीका लेकर आओ, चूडी बिंदी झूमका लेकर आओ, लाकर मेरी संजा को पहनाओ, लाकर मेरी प्यारी संजा को पहनाओ, काजल गजरा टीका लेकर आओ…  संजा का श्रंगार गोरी आरती करे, संजा का श्रंगार बहना रोली करे, संजा को सजाकर शरमा वो पडे, काजल गजरा टीका लेकर आओ, लाकर प्यारी संजा को पहनाओ, लाकर मेरी संजा को पहनाओ… संजा का श्रृंगार ननदी बिंदु करे, संजा का श्रृंगार सारी सखियाँ करे, करके श्रृंगार वो तो हँस हँस पडे, काजल गजरा टीका लेकर आओ, लाकर मेरी संजा को सजाओ, लाकर प्यारी संजा को सजाओ…  ******************** सुखमिला अग्रवाल भूमिजा  स्वरचित मौलिक  सर्वाधिकार सुरक्षित  मुम्बई

शिवशंकर तिवारी

,,,,,,,,,,,,,,,बगावत नहीं,,,,,,,,,,,,,, ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,  दायरों में सिमटने की चाहत नहीं । आसमां चूम  लेना बगावत  नहीं  ।।  ............................................  चुभ रही पंखुरी ,फूल की अब उन्हें । जिनको काँटों पे चलने की आदत नहीं  ..............................................   जंग लड़ते. हुए हम फना  हो  गये । आप कहते हैं कोई हताहत  नहीं  ।। ...............................................   ग़मज़दा  ख्वाब  ढोते  रहे उम्र भर  । मौत के  बाद भी कोई  राहत नहीं  ।। .............................................. हो  रही  बारिशें   पत्थरों   की उधर । इस तरफ कोई शीशा सलामत नहीं ।। ...............................................   जंगलों में भी दहशत है  सैय्याद  की । और शहरों में जाँ की हिफाजत नहीं ।। ................................................ शिवशंकर तिवारी । छत्तीसगढ़ । ................................................

नूतन लाल साहू

हमें जल्दी जल्दी चलना है मंजिल है बहुत दूर हमारी हो जाय न पथ में रात कहीं दिन भी जल्दी जल्दी ढलता है हमें जल्दी जल्दी चलना है। जग में है,इतना आपाधापी कभी इधर उड़,कभी उधर उड़ बीत चली संध्या की बेला जीवन पथ है टेढ़ी मेढ़ी। हमसें मिलने कौन विकल है बच्चें भी प्रत्याशा में खड़े है यह सोच थका,दिन का पंथी हो जाय न पथ में रात कहीं। भव पार भी पहुंचे है,बहुत से बात यह भी जानता हूं मैं पर दिख रहा है,आंख के आगे हर दिन,नया नया तमाशा। भय और निराशा,बहुत है जग में हमें नही घबराना है इक पथ अगर बंद हो जाएं तो नूतन पथ का निर्माण, हमें करना है। विश्व तो निरंतर चलता ही रहेगा एक पथ अपना भी बना लें अपने सपने को सच करना है तो हमें जल्दी जल्दी चलना है। अनिश्चितताओं से भरा हुआ है हमारा जीवन पथ आत्मविश्वास हमें,नही खोना है हम है ईश्वर का अंश याद रखिए इस बात को अपने ही हृदय तल में ईश्वर को ढूंढना है, हमें। मंजिल है बहुत दूर हमारी हो जाय न पथ में रात कहीं दिन भी जल्दी जल्दी ढलता है हमें जल्दी जल्दी चलना है। नूतन लाल साहू

सौरभ प्रभात

*कह-मुकरी* *दिनांक - 24.09.2021* 11. दिन भर मुझसे नेह लड़ाये। चूमे चाटे और बतियाये। पर भागे ज्यों छोड़ूँ ढ़िल्ला। ऐ सखि साजन? ना री पिल्ला।। 12. आगे पीछे वो मँडराता। जाऊँ जिधर वहीं आ जाता। बाँहें डाल करे गलबैयाँ। हे सखि साजन? नहीं ततैया।। 13. देख उसे मैं यूँ ललचाऊँ। सोचूँ ठौर उसी में पाऊँ। जी चाहे बस ले लूँ बोसा। ऐ सखि साजन? नहीं समोसा।। 14. छेड़ा उसने अनुपम राग। संग झूम के आया फाग। उसका हर सुर लगता न्यारा। क्या सखि साजन? ना इकतारा।। 15. छैल छबीला बड़ा गठीला। सुंदर प्यारा लगे सजीला। जाने किसका है वो पूत। हा! सखि साजन? ना शहतूत।। 16. गूढ़ ज्ञान की बातें बोले। वाणी अंतस मिश्री घोले। प्रीति भाव ही उसका पंथ। क्या सखि साजन? नहीं महंथ।। 17. घर बैठे वो राह निहारे। छोड़ दिया सब उसके सहारे। मेरी खुशियों का रखवाला। ऐ सखि साजन? ना सखि ताला।। 18. वो तो है जाना पहचाना। सब चाहें बस उसको पाना। देख उसे खिलती हर भाभी। ऐ सखि प्रियतम? ना सखि चाभी।। 19. सुख के रस की धार बहाये। कड़वे तृण को छाँट हटाये। उस बिन कोरा जीवन पन्ना। हे सखि साजन? ना सखि छन्ना।। 20. जहाँ कहीं वो मुझको पाये। अंग अंग से लिपटा जाये। ग

रामबाबू शर्मा राजस्थानी

              नव गीत              गीत गाता चल                        ~~~                          जग में आया हैं बंदे,             गीत खुशी के गाता चल।             मात-पिता की सेवा से,             मिले चारों धाम का फल।।             यह धरती माता अपनी,             जो पावन देवालय है।             गीत खुशी के गाता चल,             हर एक पत्थर हिमालय है।।            आन-बान-शान निराली,            कण-कण में मोती चमकें।            गीत खुशी के गाता चल,            इधर-उधर तू मत भटके।।            पौधारोपण  हरियाली,            जन-जन के मन भाती है।            गीत खुशी के गाता चल,            वसुंधरा अन्न खिलाती है।।                       संस्कृतियों का अपनापन,            मनभावन प्यार लुटाता।             गीत खुशी के गाता चल,            सुख-दु:ख तो आता रहता।।               ©®           रामबाबू शर्मा,राजस्थानी,दौसा (राज.) .                 🙏वंदना🙏                      ~~~           मुर्गा बोला,हुआ सवेरा,           चिं-चिं करती चिड़िया।           माँ को नमन करो भैया,           घर-घर फैले खुशियां।।      

कालिका प्रसाद सेमवाल

गौ माता को राष्ट्र माता बनाये ********************* सदाचार का पाठ पढ़ायें, सबको गौ पालन सिखलायें,  सब गौ माता की सेवा करके, गौ  माता का महात्म्य बताये, अपना जीवन धन्य बनायें, गौ माता को राष्ट्र माता बनायें। गौ माता की कृपा दृष्टि से ही, सुखी हो जायेगें सब नर नारी, गौ माता की अनुकम्पा से ही, दूर हो जायेगी विपदाये सारी सबको नव जीवन दिलवायें,   गौ को  राष्ट्र   माता  बनाये। अर्चन , वन्दन,  नित परिक्रमा, गौ माता की हमको करनी है, करके तेजो वलय हम बढ़ायें, चरण धूलि का तिलक लगाकर,  सकल मनोरथ  पूर्ण करायें,   गौ माता को राष्ट्र माता बनाये  । घर -घर दूध, दही की नदी बहायें , वैभवशाली, धीर वीर बनके, खुशियां  चारों  ओर   लाये, वैदिक शुभ सन्देश  सुनाये, नयी क्रान्ति देश  में  लायें,  गौ माता को राष्ट्र माता बनाये। ********************* कालिका प्रसाद सेमवाल मानस सदन अपर बाजार रुद्रप्रयाग उत्तराखंड

छत्र छाजेड़ फक्कड़

 अजब सितम है मौसम का कभी धूप कभी छांव ढूँढता हूँ  जीवन बीता भागमभाग में  मगर अब ठहराव ढूँढता हूँ  फैला जंगल कंकरीटों का गाँव गाँव शहर शहर घनघोर बियाबन में मैं  शकुन भरा घर ढूँढता हूँ  सूख गई अंतर मन की धारायें क्यूँ प्रीत का रिसाव ढूँढता हूँ  भौतिक चकाचौंध में खोया मन फिर भी आत्म लगाव ढूँढता हूँ  बुझी अनल,राख दावानल मगर रिश्तों में आँच ढूँढता हूँ  बाज़ार झूठ का सज़ा चहुँओर  क्यूँ मानव मन में साँच ढूँढता हूँ  चेहरे काले रंगें एक रंग में  जाने क्यूँ मैं काँच ढूँढता हूँ  रक्त रीत गया गृहस्थी के भाव मगर मैं रोमांच ढूँढता हूँ  न ज्वार चढ़ा सागर लहरों में  क्यूँ मावस को चाँद ढूँढता हूँ  कब चमकी चपला,कब छायी घटा घिस घिस क़लम हुई भोथरी मगर मैं अब भी धार ढूँढता हूँ  छत्र छाजेड़ “फक्कड़”

एस के कपूर श्री हंस

*।।रचना शीर्षक।।*  *।।नई पीढ़ी को*  *सौंपनी है, शुद्व स्वच्छ* *पर्यावरण की* *विरासत।।* *।।विधा।।मुक्तक।।* 1 वृक्षों से ही  हमारे   जीवन में आती   हरियाली है। प्रकृति पोषित  और हर ओर होती   खुशहाली है।। पर्यावरण   सरंक्षण  धुरी   है जीवन   के रक्षा की। जानो तभी मनेगी   नई पीढ़ी की होली दीवाली है।। 2 रक्षा पर्यावरण की   तेरी  मेरी सबकी जिम्मेदारी है। हम अभी से हों      समझदार इसी में होशियारी है।। नहीं तो बर्बाद ए गुलिस्तां  को होगी      जवाबदारी । यही आज समय की  जरूरत और   खबरदारी   है।। 3 जो हम सिखायेंगे   नई   पीढ़ी वही करेगी आगे लाकर। पर्यावरण के  प्रति    जागरूक होगी हमसे सीख पाकर।। आज कर्तव्य नई पीढ़ी को हमें सौंपना स्वच्छ पर्यावरण। अन्यथा आने वाली पीढ़ी दुःख भरेगी ये विरासत जाकर।। *रचयिता। एस के कपूर "श्री हंस" * *बरेली।।*  *©. @.   skkapoor* *सर्वाधिकार सुरक्षित*

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*मधुरालय*           *सुरभित आसव मधुरालय का*15 अंड-पिंड-स्वेतज-स्थावर, व्यापक सबमें आसव है। जड़-चेतन,चर-अचर-जगत की- अति दृढ़ धुरी बनाई है।।       पुरा काल से काल अद्यतन,       बस आसव ही आसव है।       यह तो है अनमोल धुरी वह-       महि जिसपे टिक पाई है।। सुरगण-मुनिगण-ऋषिगण सबने, ब्रह्म-महत्ता दी इसको। जीवन-कोष-केंद्र यह कहता- क्या अच्छाई-बुराई है??      जब तक आसव-द्रव है तन में,      समझो,प्राण-अमिय रहता ।      प्राण निकलना ध्रुव है तन से-       अमृत सोच न जाई है।। आसव-सोच अनित्य-अमिट है, तन जाए,शुभ सोच रहे। यदि आसव सी सोच रहे तो- समझो, अमर रहाई है।।     निर्गुण-सगुण का अंतर मिटता,     जब चाखो सुरभित आसव।     उभय बीच की खाई की भी-     इसी ने की पटाई है।। ब्रह्म एक है,ब्रह्म सकल है, ब्रह्म बिना ब्रह्मांड नहीं। आसव-सरिता बहती रहती- करती जग-कुशलाई है।।        बिना प्रमाण प्रमाणित आसव,        की शुचिता सुर-कंठ बहे।        सुर-आसव की शुचिता ही तो-        जग में शुचिता लाई है।। शिव ने विष को कंठ लगाकर, आसव-अमृत-धार किया। विष-दुख गले लगा ही जग को- मिलती शुभ सुखदाई है।।        आसव शुभकर,आसव हितकर,

व्यंजना आनंद (मिथ्या)

मात्रा भार ---12   🥗आया बाहार 🥗  ************     पेड़ों के झिरमुट से,     गाती कोयल प्यारी ।       मैना  भी मुस्काएँ,          सुंदर लगती क्यारी।।                               🌻                         पक्षी उड़ते आएं ,        अब बहार है छाएं ।          सारा मौसम खुश है ,             सभी आज बौराएं।।                          🌻                 रौनक ऐसे  छाई ,     मिली प्रीत को माया।       मनवा मोरा गाए,          पिया देख हर्षाया।।                           🌻                     पीली ओढ़ी साड़ी ,      जोगन तुझसे हारी ।         तुझको पास बुला के ,             मैं  तो  सबकुछ वारी।। 🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻 व्यंजना आनंद  (मिथ्या) ✍

रामनाथ साहू ननकी

कुसुमित कुण्डलिनी  ---- 24/09/2021                    ------ आभारी ----- आभारी प्रिय आपका , दिये नेह सम्मान । काव्य कुंज के पुष्प से ,  करता मैं आख्यान ।। करता मैं आख्यान , कृपा श्री हूँ बलिहारी । मिली मुझे पहचान , रहूँगा मैं आभारी ।। आभारी मैं नित रहूँ , मिला तुम्हारा साथ । संग रंग ऐसे चढ़ा , गर्वित मेरा माथ ।। गर्वित मेरा माथ ,  मिली ख़ुशियाँ सुख सारी । गढ़ते नव सोपान  , प्रिये मैं हूँ आभारी ।। आभारी गुरुदेव का , दिया मुझे गुरु मंत्र । भवबंधन के बीच में , रहता परम स्वतंत्र ।। रहता परम स्वतंत्र , मोक्ष पद हूँ अधिकारी । दिखलाया सद्मार्ग , नमन है हूँ आभारी ।। आभारी इस भीड़ में , लिया मुझे पहचान । आज आपके साथ हूँ , बना सफल इंसान ।। बना सफल इंसान , सभी समझे अवतारी । मैं जानूँ बस भेद , सदा ही हूँ आभारी ।।                    -------- रामनाथ साहू " ननकी "                               मुरलीडीह ( छ. ग. ) ●◆■★●◆■★●◆■★●◆■★●◆■★●◆ कुसुमित कुण्डलिनी ---- 23/09/2021                    ------ मज्जन ----- मज्जन कर गुरु ज्ञान से , निर्मल रखो शरीर । जीव दया व्रत पालना , जान सभी की पीर । जान सभी

योगिता चौरसिया प्रेमा

प्रेमा के प्रेमिल सृजन __ विधा-कुण्डलिया   सृजन शब्द-तर्पण तर्पण अर्पण जो करें,  पाते हर आनंद । सुख होते संतति सभी, जीवन हो मकरंद ।। जीवन हो मकरंद, यही तो शान बढ़ाते । होती है पहचान, सदा ये गोद खिलाते ।। कहती प्रेमा आज , पितर कर जीवन अर्पण । देते हैं आशीष, करें सेवा अरु तर्पण ।।1!! तर्पण करना चाहिए, अर्पण करके दान । पढ़ा लिखा हमको सदा, देते अपनी जान ।। देते अपनी जान , करें न्योछावर जानो । रहते है कुर्बान, त्याग करते ये मानो ।। कहती प्रेमा आज , दिखाते जीवन  दर्पण । जीवन सुखमय भोग, पितर का करते तर्पण।।2!! तर्पण पितरों का करें, सजता जीवन रोज । देते आशीर्वाद हैं , पितर करायें भोज ।। पितर करायें भोज, मिले जीवन सुख सारे । करें नेह बरसात, यही तो जग में प्यारे ।। कहती प्रेमा आज, नेह का करते वर्षण । दिए हमें वरदान, करें जीवन में तर्पण ।।3!! ---- योगिता चौरसिया "प्रेमा" -------मंडला म.प्र.

संजय जैन बीना

*याद रहोगे तब....* विधा : कविता हम सब एक  दिन मर जाएंगे। इस संसार से  मुक्ति पा जाएंगे। और छोड़ जाएंगे  अपनी लेखनी और कर्म। जिस के कारण  याद किये जाएंगे।। शब्दो के वाण  दिलको बहुत चुभते है। दिलसे जुड़ी बातों को  ही याद रखते है। भूल जाते है  जिंदा में जब लोग। तो मरने के बाद  क्यों याद करेंगे।। लोग करनी के कारण,  ही याद किये जाते है। जो अच्छा करके जाते है,  वो ही याद आते है। यदि किया नहीं कोई  अच्छा काम जीवन में। तो बाहर वाले क्या, घर वाले ही भूल जाते है।। मानव जीवन है अनमोल, समझो इसके मूल्य को। खुद जीये औरों को भी, सुख शांति से जीने दे। इस सिद्धांत को अपने, जीवन में अपनाएंगे। तो निश्चित ही लोगों के, दिलो में जिंदा रह पाओगें।। जय जिनेन्द्र देव  संजय जैन "बीना" मुम्बई 24/09/2021

विजय कल्याणी तिवारी

,,है कठोर अंतर मन जिसका,, --------------------------------------- है कठोर अंतर मन जिसका उसके नीर बहे तो कैसे गूंगे की अभिव्यक्ति बताओ अपनी बात कहे तो कैसे। रक्त शिराओं मे बाधित हो जीवन का संकट आएगा सांस - सांस पर दर्द बढ़ेगा निज मन को क्या समझाएगा जीवन दीफ जलाने वाले किसको बांट रहे हो कैसे गूंगे की अभिव्यक्ति बताओ अपनी बात कहे तो कैसे |  कोमल भाव मरे अंतस के आवृतियां पाषाणों सी है शब्दों को संधारित करते उसकी वर्षा बांणों सी है संवेदना शून्य का क्या है वह मन प्रीत गहे तो कैसे गूंगे की अभिव्यक्ति बताओ अपनी बात कहे तो कैसे । विजय कल्याणी तिवारी बिलासपुर छ.ग.

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

गीत(16/14) साधन में  साधक रत रहता, दुष्ट दुष्टता करता है। भौतिक सुख का ग्राहक मन तो, नहीं दुष्टता तजता है।। भरा त्याग से जो है मानव, श्रेष्ठ वही मानव जग में। छिपी रहे सुंदरता सारी, केवल अंगूठी-नग में। त्यागी पुरुष संत सम होता, स्नेह सभी सँग रखता है।।      नहीं दुष्टता तजता है।। पाप-कर्म से भय हो मन में, भय हो सदा बुराई से। जीवों के प्रति रखो प्रेम भी, सेवा-भाव, भलाई से। पुरुष वही जग पूजनीय है, जो उदार मन रहता है।।     नहीं दुष्टता तजता है।। मानवता का धर्म निभाना, सबके वश की बात नहीं। दें भूखे को अपना भोजन, साधारण सौगात नहीं। जिस पर रहती कृपा नाथ की, उसको अवसर मिलता है।।       नहीं दुष्टता तजता है।। लेखक-साधक-चिंतक मिलकर, सबने विश्व सवाँरा है। जब-जब ह्रास हुआ मूल्यों का, कलमों ने ललकारा है। नई सोच को कलमकार ही, जन-मानस में भरता है।।         भौतिक सुख का ग्राहक मन तो,          नहीं दुष्टता तजता है।।                      © डॉ0 हरि नाथ मिश्र                          9919446372

रामकेश एम.यादव

भूल गए! ईमान का  सौदा  करने  लगे, रिश्ता   निभाना   भूल  गए। उड़ने लगे हैं  नभ में  जब से, पैदल    चलना   भूल    गए। पीने लगे हम  आँखों से जब, घर  का  पता  ही  भूल  गए। लगती  हमको  इतनी  प्यारी, पलक  गिराना   भूल    गए। प्यार का  रंग चढ़ा  है जब से, हम  खाना - पीना  भूल  गए। बरसों से लगी थी आग जिगर, दुनिया  को  बताना भूल गए। फैला है कोरोना जब से यहाँ, हँसना -  हँसाना   भूल   गए। रोजी -  रोटी   के   पंख  कटे, चूल्हा    सुलगाना   भूल  गए। बेसन की रोटी,आम की चटनी, पन्ना     पीना     भूल       गए। नजर न आते  बचपन के शजर, जामुन     खाना    भूल     गए। याद    रहे   गाँवों   के   पनघट, हम  पाती  लिखना  भूल  गए। झर  गए  लाज- हया  के गहने, सिर  पल्लू   रखना   भूल  गए। रामकेश एम.यादव (कवि,साहित्यकार),मुंबई

महातम मिश्र गौतम

"कुंडलिया" निकला होता म्यान से, यदि उदगार कृपाण। दिखते नहीं जहान में, निर्मित शस्त्र पहाड़। निर्मित शस्त्र पहाड़, दहाड़ दुखद हित नाशी। काबा और मीनार, सतो गुण पोषक काशी। 'गौतम' गुण की खान, कनक तप तप कर पिघला। बना दिव्य परिधान, स्वर्ण मृद कण से निकला।। _____________________________ मंच को प्रस्तुत मुक्तक, मापनी-2222 2222 2222 222......जय माँ शारदा! "मुक्तक" नभ में पानी थल में पानी, पानी में क्या पानी है। इश्क मुश्क से पूर जवानी सुंदर काया पानी है। उतरा पानी सूखी नदियाँ बीती रात निशानी री- जल ही जीवन कहता है जग सेवाती धन पानी है।। महातम मिश्र 'गौतम' गोरखपुरी

मार्कण्डेय त्रिपाठी

स्वस्थ सोच स्वस्थ सोच यदि तुम चाहो तो , सद्ग्रंथों का पाठ करो । सब भ्रमजाल बिखर जाएगा , बस प्रभु का तुम जाप करो ।। गलत पुस्तकों के अध्ययन से , मन विकृत हो जाता है । मन ही है सुख, दुख का कारण, चैन कहां मिल पाता है ।। समय व्यर्थ होता है इससे , चिंतन कलुषित हो जाता । सोच सिमटकर रह जाती है , जग सुख ही मन को भाता ।। आर्ष ग्रन्थ सन्मार्ग दिखाते, सोच सात्विक हो जाती । वेद, शास्त्र पढ़ने से सचमुच , नयी ज्योति उर में आती ।। कितना पढ़ते हो ,मत सोचो , क्या पढ़ते हो, यह जानो । कितना खाते हो,मत देखो , क्या खाते हो, पहचानो ।। मनोरंजन के नाम पर देखो , क्या, क्या जन पढ़ते हैं आज । दूषित छबि मन में जगती है , माथ पीटता स्वस्थ समाज ।। चिंतन,मनन अगर दूषित हो , भला कार्य कैसे हो शुद्ध । आज विपथगामी चिंतन से , चिन्ता में हैं स्वस्थ, प्रबुद्ध ।। मोबाइल के दुरुपयोग से , गलत उभरती है तस्वीर । पता नहीं क्या, क्या पढ़ते जन, क्या, क्या देख रहे उर चीर ।। बाल, युवा के मनस् पटल पर , स्पष्ट दिख रहा कलुष प्रभाव । शिक्षा है, संस्कार नहीं है , बदल रहा निर्दोष स्वभाव ।। भौतिकवाद चढ़ा सिर ऊपर , कौन सुने मूल्यों की बात । स

प्रवीण शर्मा ताल

मापनी 2122 ,   2122 मनोरम छन्द सुबह से  ही सत्य बोलो। तुम दिखावा मत ठठोलो। सत्य तो कदम- कदम बढ़ेगा। झूठ बस पल -पल झुकेगा। शाम को तुम भूल जाओ बात सबकी मान जाओ। झूठ की रस बून्द तोलो, सुबह से ही सत्य बोलो। सत्य जीते ,हार माने, राम हर जीत को जाने। धर्म रस में मान घोलो, सुबह से ही सत्य बोलो। बात  दिल से आज तोलो,  रास कड़वा तोड़ डालो।  द्वार तुम ही राज खोलो। सुबह से ही सत्य बोलो। प्रवीण शर्मा ताल

मार्कण्डेय त्रिपाठी

गिर गया पत्ता पेड़ से गिर गया पत्ता , वह दुखी,तरु भी दुखी है । कट गया जो मूल से , सोचो कहां, कैसे सुखी है ।। यादें उन सुखमय क्षणों की , उसे जीवन भर सतातीं । आहें भरते रहते दोनों , भले दुनियां मुस्कराती ।। उखड़ता जो मूल से , वह तरु कहां फिर खिलखिलाता । देख लो क्या हाल उसकी , उसका मालिक बस विधाता ।। तुम भले पुर में रहो , पर गांव को मत भूल जाना । घोंसला सूना पड़ा है , रो रहा है आशियाना ।। जब कभी अवसर मिले , एकांत में निज मन टटोलो । आर्त्त स्वर का श्रवण कर लो, अश्रु से निज पीर धो लो ।। अपने लोगों से विलग रह , जीना क्या सचमुच है जीना । दर्द तो होता ही होगा , पोंछ लेना तुम पसीना ।। विहग सम तुम भी उड़ो , पर लौटकर निज नीड़ आना । शांति, सुख पाओगे निश्चित , चल न सकता है बहाना ।। तुम कहीं पर भी रहो , निज गांव से तुम जुड़े रहना । मन सदा हर्षित रहेगा , भूलना मत गांव गहना ।। गांव की हालत बुरी , तो तुम भी इसके उत्तरदाई । संतुलन रखते नहीं , किस काम की ऐसी कमाई ।। इस नयी रचना समय , यदि सच कहूं, मैं भी दुखी हूं । गांव यदि दुखमय है तो , कैसे कहूं कि मैं सुखी हूं ।। मार्कण्डेय त्रिपाठी ।

भास्कर सिंह माणिक

जिंदगी         ------------ शतरंज की तरह  होती है जिंदगी। पैदल की तरह  दौड़ती है जिंदगी। हाथी  घोड़ा  राजा   लड़े  हैं  जंग। पागल की तरह  हंसती है जिंदगी। जो लोग चूक जाते हैं  इस खेल में। गहरी  दरार  कर  देता  है  मेल में। गोटियों की तरह  नचती है जिंदगी। सै मात कि तरह  उलझती है जिंदगी। संभाल कर रखना कदम  संघर्ष में। व्यवधान  पैदा   करता  है   हर्ष  में। बुलबुले की तरह  होती है जिंदगी। कंक्रीट की तरह  होती है जिंदगी।।                     भास्कर सिंह माणिक,कोंच

रामनाथ साहू ननकी

कुसुमित कुण्डलिनी  ----                    ------ हमारे ----- चलो हमारे साथ तुम , इस दुनिया से पार । जहाँ सिर्फ शुचि प्रेम हो , बहे गंग की धार ।। बहे गंग की धार , ईश के मिले सहारे । नहीं तोड़ना बंध , साथ ही चलो हमारे ।। संग हमारे ईश हैं , कभी न छूटे भान । गढ़ना है अपने लिए , कोई लक्ष्य महान ।। कोई लक्ष्य महान , देख कर रहा इशारे । कर खुद पर विश्वास , परम प्रभु संग हमारे ।। कभी हमारे बीच में , पनपे नहीं खटास । कायम ही रखना सदा , अच्छी नेक मिठास ।। अच्छी नेक मिठास , चलें लेकर चटकारे । आये नहीं दरार , दरमियाँ कभी हमारे ।। आज हमारे देश की , खुशियाँ हैं रंगीन । खत्म सभी होने लगे , जुर्म घात संगीन ।। जुर्म घात संगीन , सुखद हैं सर्व नजारे । अब चहुँओर विकास , देश में आज हमारे ।।                    -------- रामनाथ साहू " ननकी "                               मुरलीडीह ( छ. ग. )

मधु शंखधर स्वतंत्र

* स्वतंत्र की मधुमय कुण्डलिया*                *राही* ----------------------------------- राही बाधा दूर कर , चलता अपनी राह। लक्ष्य निरंतर प्राप्त कर, प्राप्त करे वह वाह। प्राप्त करे वह वाह , जगत में नाम कमाए। कंटक करके फूल , सुगम वह राह बनाए। कह स्वतंत्र यह बात , भावना पथ ही चाही। पावन मन की राह , चला यह मन का राही।। राही पर्वत पर चढ़े , दुर्गम अति आधार। अटल रहे विश्वास तो , पाए खुशी अपार। पाए खुशी अपार , उच्च चोटी पर जाए। झंडा लेकर हाथ , शिखर पर वह लहराए। कह स्वतंत्र यह बात , कठिनता जिसकी माही। पाए वो ही लक्ष्य , कहें जिसको सब राही।। राही का जब साथ हो , राह लगे आसान। प्रियतम सम बहु प्यार से , मिलता है प्रतिमान। मिलता है प्रतिमान , धैर्य जब साथ निभाए। दृढ़ होता विश्वास , लक्ष्य तक यह पहुँचाए। कह स्वतंत्र यह बात , मनुज सच्चा उत्साही। सुखद बसे संसार , प्रेम मधु पथ पर राही।। * मधु शंखधर 'स्वतंत्र '* *प्रयागराज*

संजय जैन बीना

*पहले हम सब जैन है* विधा : गीत भजन मेरा कर्मा तू, मेरा धर्मा तू, मेरा जैनधर्म,सब कुछ है तू। हर कर्म अपना करेंगे, जैन धर्म के अनुसार। जैनकुल में जन्म लिया है, जैनी होने का अभिमान। हम जीयेंगे हम मरेंगे, जैन धर्म के अनुसार। जैनकुल में जन्म लिया है, जैनी होने का अभिमान।। तू में कर्मा, तू मेरा धर्मा, तू मेरा अभिमान है। जैन धर्म तुम पर, मेरा जीवन कुर्बान है। हम जिएंगे हम मरेंगे, जैन धर्म के अनुसार । जैनकुल में जन्म लिया है। जैनी होने का अभिमान है।। दिगम्बर, श्रेताम्बर, स्थानकवासी, हम सब जैन है, बस हम जैन है। जो करे पंथवाद की बाते, वो महावीर का भक्त है ही नहीं। हम जीएंगे हम मरेंगे, जैन धर्म के अनुसार । जैनकुल में जन्म लिया है। जैनी होने का अभिमान है।।   आज महापर्वराज पर्यूषण का नौवा दिवस *उत्तम आकिंचन धर्म* के उपलक्ष्य में मेरा उपरोक्त गीत भजन सभी जैन श्रावक और जैन समाज को समर्पित है।  जय जिनेन्द्र देव  संजय जैन "बीना" मुंबई 18/09/2021

डॉ. विनय कुमार श्रीवास्तव

भगवान विश्वकर्मा जयंती हे ! सृष्टि सृजनकर्ता विश्वकर्मा जी। तुमको शत शत नमन प्रणाम मेरा।। हे ! विश्व शिल्पी देव विश्वकर्मा जी। तुमको कोटि -2 वंदन प्रणाम मेरा।। तूने बनाया द्वापर में द्वारिका नगरी। त्रेता युग में बनाये स्वर्णलंका नगरी।। तुम ऐसे शिल्पकार वास्तु के ज्ञानी। ब्रह्मा के पुत्र निर्माण सृजन स्वामी।। इंद्रप्रस्थ निर्मित करे विश्वकर्मा जी। सुंदर स्वर्ग भी बनाये विश्वकर्मा जी।। त्रिदेवों ने निर्माण हेतु तुम्हें पुकारा। नव निर्माण सृजन कर तूने संवारा।। युग-युग से तुम श्रेष्ठ शिल्पकार हो। सब देवी देवों के महाशिल्पकार हो।। कल पुर्जों कारखानों के भी देवता। तुम पूजे जाते हो विश्वकर्मा देवता।। श्रमिकों मजदूरों को दे दो वरदान। कार्य कुशल नित रहें हमेशा ज्ञान।। 17 सितंबर रहे विश्वकर्मा जयंती। मालिक लेबर मनाएं सभी जयंती।। हे ! वास्तु शास्त्री हे!श्रेष्ठ अभियंता। हे ! सृजन देव हे! कुशल अभियंता।। हे ! विश्वकर्मा भगवान तेरी जय है। हे ! श्रेष्ठ शिल्पकार तेरी जय-2 है।। रचयिता : *डॉ. विनय कुमार श्रीवास्तव* वरिष्ठ प्रवक्ता-पी बी कालेज,प्रतापगढ़ सिटी,उ.प्र. (शिक्षक,कवि,लेखक,समीक्षक एवं समाजसेवी) स

निशा अतुल्य

मन  दोहा  17.9.2021 बांध सदा मन को रखो,बिगड़ न जाए चाल । छोड़ दिया जो अश्व सा,बन जाता है काल  ।। मन में सरिता प्रेम की, बांधे सब संग डोर । उजली उजली है धरा ,मन का नाचे मोर ।। सुख दुख एक समान है, मन को साधो यार । जीवन सुरमय है सदा , समझो इसे न भार ।। मन पवित्र तब जानिए , निर्मल हो जब भाव । शीतलता सबको मिलें, मन की ठंडी छाँव ।। चंचल मन को थामिए , सुखमय हो संसार । जीवन अच्छा बीतता, बन जीवन आधार ।। निशा"अतुल्य "

डॉक्टर रश्मि शुक्ला

अनन्त चतुर्दशी 2021 भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी भगवान अनन्त का व्रत करते। अन्त न होने वाले सृष्टि के कर्ता विष्णु की भक्ति का दिन कहते। यह विष्णु कृष्ण रूप हैं और शेषनाग काल रूप में विघमान रहते। स्नान करके कलश की स्थापना कर कलश पर अष्टदल कमल के समान बने बर्तन से निर्मित अनन्त भगवान की स्थापना करते। समीप चौदह गाँठ लगाकर हल्दी से रंगे कच्चे डोरे को रखते। गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेध से पूजन करते। अनन्त भगवान का ध्यान कर शुद्ध अनन्त को अपनी दाई भुजा में बाँध कर मानव शुभ मंगल पाते। धागा अनन्त फल देने वाला अनन्त की चौदह गाँठ चौदह लोको की प्रतीक हैं इसमे अनन्त भगवान विघमान रहते। डॉक्टर रश्मि शुक्ला  प्रयागराज  उत्तर प्रदेश  भारत

विजय तिवारी

                  🌹ग़ज़ल 🌹 हमेशा हँसता रहता हूँ मगर जोकर नहीं हूँ मैं,  ज़माने के ग़मों की ज़द से भी बाहर नहीं हूँ मैं।  चले आओ कभी भी प्रेम से हाजिर हमेशा हूँ,  खुले हैं दिल के दरवाजे कोई दफ़्तर नहीं हूँ मैं।  सिफ़ारिश औ' ख़ुशामद मैं करूँ सम्मान की ख़ातिर,  कभी भी हो नहीं सकता कि वो शायर नहीं हूँ मैं।  ये शीतल जल नदी का है यही जीवन सुधा भी है,  भरा हो खारे ही पानी से वो सागर नहीं हूँ मैं।  अचानक इस तरह मुँह फाड़कर मत देखिए मुझको।  शिखर पर हूँ किसी भी और का पैकर नहीं हूँ मैं।  तुम्हीं हो ज़िन्दगी मेरी तुम्हीं हो जान भी मेरी,  कहोगे जो करूँगा सब मगर नौकर नहीं हूँ मैं।  करेंगे साजिशें तो मुँह की खायेंगे हमेशा वो,  मिटा दूँगा उन्हें जड़ से 'विजय' जर्जर नहीं हूँ मैं।                    🌹ग़ज़ल 🌹 दिल तोड़ने की उनकी शरारत नहीं गयी,  वो बेवफ़ाई करने की नीयत नहीं गयी।  हमसे करें वो प्यार ज़रूरी नहीं मगर,  दिल में वही बसे हैं मुहब्बत नहीं गयी।  उनके लिए ही हँस के लुटा दी है जान भी,  फिर भी हमीं से उनकी शिक़ायत नहीं गयी।  वो बेमिसाल हुस्न अदा उसपे बाक़माल,  उस नाजनी के दीद की हसरत

रामबाबू शर्मा

.                              बेटी अनमोल रत्न                          🤷‍♀  बेटियाँ 🤷‍♀                       ~~~~ भारतीय संस्कृति की आन-बान-शान है बेटियाँ। हर काम में निपुण,सदगुणों की खान है बेटियाँ।। घर-आंगन की निराली खुशबू  होती है  बेटियाँ। पिता के भाल पर तिलक बन रहती है  बेटियाँ।। ठुमक-ठुमक, मनभावन प्यार लुटाती  बेटियाँ। संकट कितना भी, खुशियों का सावन  बेटियाँ।। तभी सब कहते,साक्षात दुर्गा का रूप है बेटियाँ। समयआने पर,झाँसीकी रानी बन जाती बेटियाँ।। सुंगध किसी बगिया की,तो गगनपरी है बेटियाँ। चाहे कम बोले पर,काल से कब डरी है बेटियाँ।। बेटों की चाह सभी को,वंश तो चलाती हैं बेटियाँ। इस जीवन में परमेश्वर का अंश होती है बेटियाँ।। राजस्थानी विनती करता,बेटी  अनमोल धरोहर। पीले हाथ करने का मिले सभी को शुभ अवसर।। ©®         रामबाबू शर्मा,राजस्थानी,दौसा(राज.)

नूतन लाल साहू

रुपैया तेरा कितनें रूप जग में सबसे बड़ा रुपैया रे भईया वक्त ऐसा आ गया है। नाता न साथी है रिश्ता न साथी है जग में साथी है केवल रुपैया रुपैया तेरा है कितनें रूप। बेटी न प्यारी है बेटा न प्यारा है जग में प्यारा है केवल रुपैया रुपैया तेरा है कितनें रूप। रोटी न महंगी है कपड़ा न महंगा है जग में महंगा है केवल रुपैया रुपैया तेरा है कितने रूप। गाना न मीठा है बजाना न मीठा है जग में मीठा है केवल रुपैया रुपैया तेरा है कितने रूप। गांधी जी न नेता है जवाहर जी न नेता है जग में असली नेता है केवल रुपैया रुपैया तेरा है कितने रूप। दुनिया न सच्ची है मानव भी नही है सच्चा जग में सच्चा है केवल रुपैया जग में सच्चा है केवल रुपैया रुपैया तेरा है कितने रूप। जग में सबसे बड़ा रुपैया रे भईया वक्त ऐसा आ गया है अब उसकी चर्चा कौन करता है संतोष ही परम सुख है अगर मिल जाएं,संतोष धन तो रामरतन धन पा गया है। रुपैया तेरा कितनें रूप सबसे बड़ा रुपैया है। नूतन लाल साहू

विजय कल्याणी तिवारी

पग पग लगते शूल सम --------------------------------- पग पग लगते शूल सम बहे रक्त हर पाँव अवचेतन मे है पड़ा मै जनमा जिस गाँव। प्रेम प्रीत जल राख मय अंतस कुटिल कठोर टूट टूट बिखरा पड़ा बंधन का वह डोर। उस बंधन के भाव से छूट गये जब लोग जाने अनजाने फँसे पतन पतित संयोग। जब भटका निज कर्म से कहाँ घटे  संताप विस्थापित सद्कर्म हुआ लपट उठाता पाप। रोके कौन बहाव को रक्त बहे जस नीर पर दुख कातर कौन है जाने जिसकी पीर। राह साफ सुथरे दिखे पर मन अती मलीन देना छूटा हाथ से अंतर मन अति दीन। कुत्सित सोचों ने किया सद्वविचार का दाह मुख मुसकान विलीन है केवल शेष कराह। डोर सहेज रखा नही किससे बाँधे बोल मूरखता से खो दिया वस्तु बड़ा अनमोल। शेष शूल अब हैं बचे करने को बेचैन कौन पोछता नीर को नित्य बहाते नैन। विजय कल्याणी तिवारी, बिलासपुर छ.ग.

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*मधुरालय*               *सुरभित आसव मधुरालय का*10 छंद-ताल-सुर-लय को साधे, भाव  भरे रुचिकर हिय  में। वाणी का यह प्रबल प्रणेता- सच्ची यह   कविताई  है।।       लेखक-साधक-चिंतक जिसने,       दिया  स्नेह  भरपूर  इसे।       उसके गले उतर देवामृत-       ने भी प्रीति निभाई  है।। आसव-शक्ति-प्रदत्त लेखनी, जब काग़ज़ पर चलती है। चित्र-रेख अक्षुण्ण खींचती- रहती जो अमिटाई है।।       आसव है ये अमल-अनोखा,        मन भावुक बहु करता है।        मानव-मन को दे कवित्व यह-        करता जन कुशलाई है।। योग-क्षेम की धारा  बहती, यदि प्रभुत्व इसका होता। धन्य लेखनी,कविता धन्या, जो रस-धार बहाई है।।      मधुरालय के आसव जैसा,      नहीं पेय जग तीनों में।      मधुर स्वाद,विश्वास है इसका-      जो इसकी प्रभुताई है।। जब-जब अक्षर की देवी पर, हुआ कुठाराघात प्रबल। आसव रूपी प्रखर कलम ने- माता-लाज बचाई  है।।      अमिय पेय,यह आसव नेही,      ओज-तेज-बल-बर्धक है।       साहस और विवेक जगाता-       होती नहीं हँसाई है।। रचना धर्मी कलम साधते, सैनिक अस्त्र-शस्त्र लेकर। दाँव-पेंच-मर्मज्ञ सियासी- विजय सभी ने पाई है।।      शिथिल तरंगों ने गति पाई

छत्र छाजेड़ फक्कड़

कौन बडा़ है? छत्र छाजेड़  ‘फक्कड़’ सही सुना है लोकतंत्र में  लोक बडा़ है मगर कुछ और कह रहें है हालात देश के कि  यँहा तो तंत्र बडा़ है मनमानी चलती है बस तंत्र की लोक बेचारा तो भीड़ बना सड़क पर खड़ा है योजनाएँ नित बनती है सिर्फ़ लोक  के लिए मगर तंत्र के चलते लोक यँहा का जँहा का तँहा पड़ा है सुधरेंगें कैसे हालात सबके सामने प्रश्न यही खड़ा है लोक जुड़े या नहीं लोकपाल के साथ यह फ़ैसला कुछ कड़ा है तंत्र कब चाहेगा कोई व्यवधान जिससे लगे अंकुश उन पर क्योंकि सारा का सारा तंत्र सड़ा है पाने को स्व-सुविधा को स्वार्थ सिद्धि  में  स्वयं लोक फिसल कर क़ानून और नीति से दूर खड़े है ऐसे में क्या होगा राम -कृष्ण के इस देश का मैली हो चुकी जँहा गंगा आदमी से आदमी ले रहा है पंगा नीति,क़ानून,रिश्तों के समिश्रण की आड़ में इंसान स्वंय खड़ा है नंगा जाने कब से खड़ा है हमारे सामने कि क्या होगा ऐसे में  प्रश्न यही बड़ा है?

डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*प्रेमावली    (दोहे)*  अति मोहक संवाद का, करना सदा प्रचार। मन में सीताराम का, नियमित हो विस्तार  जिससे प्रीति लगे वही, रहे प्रेम के संग। सारी दुनिया देख यह, हो जाये अति दंग।।  जिह्वा से टपके सतत, सरस प्रीति रस धार। हरदम वह करती रहे, दिव्य -प्रीति-इजहार।।  प्रीति मिले सुंदर सुखद,गहराई में जाय। सघन प्रीति के हृदय में, बैठ समुद्र नहाय।  सदा मोहिनी मंत्र ही, करे दिलों पर वार। हल्ला बोले सहज ही, मारे मृदु बौछार।।  प्रेम-मोहब्बत-स्नेह का, मिले दिव्य वरदान। आशाओं के दीप से, चले हृदय अभियान।।  हाय! सदा साथी बनो,हर लो दुख-अंबार। प्रेम-मित्रता से करो, जीवन-गाड़ी पार।।  अक्षुण्ण धन मधु प्यार है, नहीं चुकेगा मीत। इसको जो भी बाँटता, वह खुद में संगीत।।  बन दीवाना प्रेमदा, झूम-झूम कर नाच। दिल को हीरा कीजिये, मत बनने दो काँच।।  मन पागल हो घूमता, जब पाने को प्यार। खुल जाती तकदीर है,मिल जाता है द्वार।।  द्वार खड़ा हो माँगता, प्रेमी हृदय प्रदेश। कृष्ण बना यह घूमता,सदा राधिका- देश।।  राधा के संसार से,कान्हा को है प्यार। सिर्फ राधिका चाहिए,और नहीं स्वीकार।।  प्रेम करो अनुराग भर, चल प्रेमी के संग। यह बंधन अति

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

गीत मान नहीं कर सकते हो तो, मत करना अपमान कभी। आदर करना जब सीखोगे, पाओगे सम्मान तभी।। यही सनातन धर्म राष्ट्र का, यही तो रीति पुरानी है। विश्व मानता लोहा अपना, अपनी प्रीति कहानी है। भारत की मानवता उत्तम, जिसको करते नमन सभी।।      पाओगे सम्मान तभी।। रहे धरोहर सदा सुरक्षित, बस प्रयास यह करना है। मेल-जोल से जीवन बीते, श्याम-श्वेत से बचना है। उत्तर-दक्षिण,पूरब-पश्चिम, सोच न उपजे गलत कभी।।        पाओगे सम्मान तभी।। बनो सहायक मानव हो तुम, सुंदर सोच बढ़ाने में। ऊँच-नीच का भाव न पनपे, जीवन-बाग सजाने में। आदर देकर मिलता आदर, मान बढ़ेगा शीघ्र अभी।।        पाओगे सम्मान तभी।। तुम हो रचना श्रेष्ठ जगत की, जग-आभूषण-शान तुम्हीं। विधि-विधान के प्रतिनिधि जग में, एकमात्र पहचान तुम्हीं। शुद्ध सोच के हो परिचायक- सबसे तेरी सदा निभी।।      पाओगे सम्मान तभी।।                 © डॉ0 हरि नाथ मिश्र                  9919446372